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Chhattisgarh Naxal Encounter: एक लंबी त्रासदी खत्म करने की बड़ी चुनौती?, नक्सली पर टूट पड़े जवान

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: April 1, 2025 05:11 IST

Chhattisgarh Naxal Encounter:  कई सरकारें आईं जिन्होंने नक्सलवाद को काबू में करने की कोशिश की लेकिन हकीकत यही है कि नक्सलवाद लगातार फलता-फूलता रहा.

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ठळक मुद्देजंगल में लड़ते रहे तो दूसरी ओर इनके हिमायती शहरों में भी शरण पाने लगे. नक्सलप्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में विकास कार्य नहीं कर पा रही थी.अगले साल तक नक्सलवाद के सफाये का रास्ता साफ दिख रहा है.

Chhattisgarh Naxal Encounter: अगले साल तक नक्सलवाद से मुक्ति का जो भरोसा केंद्रीय मंत्री अमित शाह दिला रहे हैं, वह निश्चित रूप से देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी में किसानों का विद्रोह शुरू हुआ और उसके बाद शोषण के खिलाफ विद्रोह को नक्सलवाद का नाम मिल गया. मगर शोषण के विरोध में शुरु हुआ यह आंदोलन बड़ी तेजी से संगठित अपराध में तब्दील हो गया. पश्चिम बंगाल से लेकर दक्षिण भारत तक एक लाल लकीर खींच दी गई और अमूूमन शांति का प्रतीक माना जाने वाला जंगल वास्तव में अपराधियों का जंगलराज साबित होने लगा. बीच में कई सरकारें आईं जिन्होंने नक्सलवाद को काबू में करने की कोशिश की लेकिन हकीकत यही है कि नक्सलवाद लगातार फलता-फूलता रहा.

एक तरफ कुछ लोग आदिवासियों को ढाल बनाकर जंगल में लड़ते रहे तो दूसरी ओर इनके हिमायती शहरों में भी शरण पाने लगे. जब भी सशस्त्र बलों ने नक्सलियों को काबू में करने की कोशिश की तो हल्ला यह मचाया गया कि आदिवासियों पर पुलिस जुल्म कर रही है लेकिन जंगल के भीतर कहानी कुछ और ही चल रही थी. आदिवासियों पर कहर तो दोनों ओर से टूट रहा था.

यदि पुलिस की बात मानें तो नक्सली मौत के घाट उतार देते और मजबूरी में नक्सलियों का साथ दें तो पुलिस के कोप का भाजन बनना स्वाभाविक था. कई दशक तक रस्साकशी चलती रही. मानवाधिकारों की आड़ में नक्सली खुद को मजबूत करते रहे. आश्चर्यजनक बात है कि नक्ससलियों के पास अत्याधुनिक हथियार भी पहुंचते रहे.

सशस्त्र बल जो हथियार जब्त करते रहे हैं, उनमें से ज्यादातर हथियार विदेशों में निर्मित थे. निश्चित रूप से नक्सलियों का संबंध पूर्वोत्तर के हथियारबंद गिरोहों से प्रगाढ़ होता चला गया. विदेशी ताकतों ने भी भारत में नक्सलवाद की खूब मदद की और हालात ऐसे पैदा हो गए कि सरकार चाह कर भी नक्सलप्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में विकास कार्य नहीं कर पा रही थी.

तारीफ करनी होगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की जिनकी तिकड़ी ने यह ठान लिया कि अब बर्दाश्त नहीं करेंगे. नक्सलियों का सफाया करके रहेंगे. राज्य सरकारें भी इसमें साथ आईं और आज हालात ऐसे बने हैं कि अगले साल तक नक्सलवाद के सफाये का रास्ता साफ दिख रहा है.

पिछले साल 787 नक्सलियों ने समर्पण भी किया. इस साल भी 50 से ज्यादा नक्सली समर्पण कर चुके हैं. ये वो लोग हैं जिनके सिर पर सरकार ने लाखों रुपए का इनाम रखा हुआ था. इन लोगों ने जो कहानियां सुनाई हैं, वह रोंगटे खड़े कर देने वाली हैं. मानवाधिकार की बात करने वाले नक्सली अपने इलाके में आदिवासियों के साथ क्रूरतम व्यवहार करते हैं.

यहां तक कि मानवीयता की बात करने वाले नक्सली साथी को भी वे मौत के घाट उतारने से गुरेज नहीं करते हैं. नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने के लिए सरकार ने सबसे पहले उनके धन की आवक का रास्ता बंद किया और इसका प्रभाव हथियारों की आपूर्ति पर भी पड़ा. इस तरह नक्सली लगातार कमजोर होते चले गए हैं. अब अंतिम प्रहार शुरू हो चुका है. वह दिन दूर नहीं जब जंगल नक्सलियों से मुक्त हो चुका होगा लेकिन मुक्ति को स्थाई रखने के लिए विकास की धारा तेजी के साथ आदिवासी इलाकों में पहुंचानी होगी. 

टॅग्स :नक्सलछत्तीसगढ़नरेंद्र मोदीअमित शाह
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