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ब्लॉग: महिलाओं के प्रति क्रूर मानसिकता मंजूर नहीं

By राजेश बादल | Updated: April 30, 2024 10:34 IST

देश की सर्वोच्च पंचायत की यह सदस्य अपने ही शहर में जिला प्रशासन के अधिकारियों से प्रताड़ित होती रही और संविधान के रखवाले उपहास उड़ाते रहे। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह शर्म की बात है।

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खबर विचलित करने वाली है, छत्तीसगढ़ से आई है, चुनाव प्रचार के लिए एक राजनीतिक दल की दो राष्ट्रीय महिला नेत्रियां बिलासपुर पहुंची थीं। उनमें से एक राज्यसभा सांसद और दूसरी पार्टी की महिला शाखा की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। कार्यकर्ताओं के साथ लंबी बैठक के बाद इन राजनेत्रियों को महिला शौचालय की आवश्यकता हुई। निकट ही सरकारी विश्राम भवन था। दोनों महिलाएं वहां गईं और प्रभारी से शौचालय की अनिवार्यता बताते हुए उसके उपयोग की अनुमति मांगी।

प्रभारी ने साफ इनकार कर दिया। कारण पूछने पर उसने चुनाव आचार संहिता का हवाला दिया। उसने कहा कि आचार संहिता के चलते राजनीतिक कार्यकर्ता सरकारी संपत्ति का उपयोग नहीं कर सकते। यदि वे विश्राम गृह के शौचालय का उपयोग करना चाहती हैं तो सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट का लिखित आदेश लेकर आएं। उसके बाद ही उनके लिए शौचालय खोला जाएगा। एक निर्वाचित महिला आदिवासी राज्यसभा सांसद के साथ कार्यपालिका के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का यह बर्ताव यकीनन शर्मनाक और निंदनीय है।

कानूनी जानकारों के अनुसार इसके लिए जिम्मेदार अफसरों की बर्खास्तगी की सजा भी कम है। क्योंकि उसने उस वजह का सहारा लिया, जिसे तोड़ने पर कोई आपराधिक मामला ही नहीं बनता। अर्थ यह है कि एक बारगी वे महिला नेत्री शौचालय का इस्तेमाल कर भी लेतीं तो भी उनके विरुद्ध आचार संहिता तोड़ने का कोई प्रकरण पंजीबद्ध नहीं हो सकता था। ऐसे में कार्यपालिका के किसी अधिकारी का यह निर्देश संविधान में प्राप्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन ही है। इसके उलट राज्यसभा सांसद चाहे तो अपने साथ अमानवीय बर्ताव का आपराधिक प्रकरण दर्ज करा सकती है. एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि, आदिवासी व महिला को संविधान में प्राप्त मूल अधिकारों से रोकने का मामला बनता ही है।

प्रश्न उठता है कि महिलाओं को सार्वजनिक रूप से सम्मान देने से हम क्यों हिचकते हैं? हम दादी, नानी, मां, बहन के रूप में उनके चरण स्पर्श करते हैं, शिक्षक के रूप में प्रणाम करते हैं, प्रेमिका और पत्नी के रूप में उसे दिल में बिठाते हैं। मगर जब यही स्थिति सार्वजनिक व्यवहार में आती है तो सारी मर्यादाएं और संस्कार तार-तार होकर बिखर जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि शौचालय के लिए सहायता मांगने आई महिला किसी के भी परिवार की सदस्या हो सकती है. उसके साथ कोई भी शारीरिक हादसा हो जाए तो कौन जिम्मेदार होगा?

कोई भी व्यक्ति उसके साथ इतनी क्रूरता कैसे दिखा सकता है। छत्तीसगढ़ की इस घटना पर समूचा समाज, प्रशासन अभी तक खामोश है और जरा-जरा सी बात को लेकर सड़कों पर उतर आने वाली संस्थाएं व जिम्मेदार नागरिक अभी तक चुप्पी साधे बैठे हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के मामले में असल मुद्दा आचार संहिता का भी नहीं है। सवाल आदर्श आचार संहिता के बहाने प्रशासन के क्रूर, अमानवीय और संवेदनहीन रवैये का है।

एक ओर मतदान केंद्रों पर शौचालय और पानी की व्यवस्था उपलब्ध कराने का ढिंढोरा पीटा जाता है तो दूसरी तरफ वही कार्यपालिका सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं के साथ संवेदनहीन व्यवहार करती है। क्या भारतीय समाज आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी इस अवस्था में नहीं पहुंचा है कि आधी आबादी के प्रति न्यूनतम सम्मानजनक व्यवहार कर सके? हम संविधान के लागू होने के अमृत महोत्सव वर्ष में चल रहे हैं और सोच के स्तर पर आदिम गुफाओं से बाहर नहीं निकल पाए हैं।

इसका मतलब यही हुआ कि संविधान सभा में पूर्वजों ने तो अच्छी भावना से बिना किसी लैंगिक भेदभाव के सबको समान दर्जा दिया था, हमने बाद में उस भावना का आदर नहीं किया। समान व्यवहार की बात तो बहुत दूर, संसद और विधानसभाओं में उन्हें तैंतीस फीसदी आरक्षण देने की बात आती है तो सभी खामोश हो जाते हैं। उन्हें जनप्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करने में मानसिकता आड़े आती है।

भारतीय संविधान महिलाओं को पहले दिन से मतदान का अधिकार देता है। संविधान सभा में इस मताधिकार पर धुआंधार बहस हुई थी। कहा गया था कि अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक बड़े देश में संविधान लागू होने के 180 साल बाद महिलाओं को मताधिकार का हक मिला था। ऐसे में भारत में इतनी जल्दबाजी क्यों की जा रही है? इस पर बाबासाहब आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू और राजकुमारी अमृत कौर जैसे सदस्यों ने अपने तर्कों से विरोधियों को चुप कर दिया था. इसके बाद भी छत्तीसगढ़ का हादसा दिल दहलाने वाली घटना है।

मध्य प्रदेश में पंचायतराज अधिनियम लागू हुआ तो पुरुष प्रधान मानसिकता ने एक दलित निर्वाचित सरपंच महिला को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रध्वज नहीं फहराने दिया था। उस समारोह में उस दलित जनप्रतिनिधि को जमीन पर बैठने को मजबूर किया गया और पटवारी, ग्राम पंचायत सचिव जैसे कर्मचारी उसके सामने कुर्सियों पर डटे रहे।

इस घटना से सरकार की भारी बदनामी हुई। जब अगला गणतंत्र दिवस आया तो पुलिस के पहरे में उस दलित महिला सरपंच ने तिरंगा फहराया लेकिन क्या हर साल पुलिस की मौजूदगी में राष्ट्र ध्वज फहराया जाना उचित है? पिछले साल ही मध्यप्रदेश में एक दलित राज्यसभा सांसद ने तो प्रधानमंत्री से अपने साथ हो रहे भेदभाव और छुआछूत वाले बर्ताव की शिकायत की थी। देश की सर्वोच्च पंचायत की यह सदस्य अपने ही शहर में जिला प्रशासन के अधिकारियों से प्रताड़ित होती रही और संविधान के रखवाले उपहास उड़ाते रहे। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह शर्म की बात है।

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