उमेश चतुर्वेदी का ब्लॉग: भारतीय भाषाओं के प्रति बदलता नजरिया, क्या है हिंदी की जगह और भारत में कहां खड़ा है अंग्रेजी
By उमेश चतुर्वेदी | Published: May 1, 2022 09:33 AM2022-05-01T09:33:18+5:302022-05-01T09:38:25+5:30
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने एक बार कहा था, “सभी को समय से न्याय मिले, न्याय व्यवस्था कम खर्चीली हो, समान्य आदमी की समझ में आने वाली भाषा में निर्णय लेने की व्यवस्था हो और खासकर महिलाओं और कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय मिले, यह हम सबकी जिम्मेदारी है।”
नई आर्थिकी और उसकी सहधर्मिणी नव संस्कृति ने दुनिया को देखने, समझने और विकसित करने के लिए नया नजरिया प्रस्तुत किया है. चूंकि इस नवआर्थिकी की बुनियाद विलायती धरती है, लिहाजा वह अपने साथ अपनी भाषा का भी विस्तार कर रही है. भारत जैसे देशों में विकास की समानांतर व्यवस्था में अंग्रेजी की उपस्थिति और उसका विस्तार कटु सत्य है.
ऐसे माहौल में भी भारतीय भाषाओं का अस्मिताबोध लगातार बढ़ रहा है. भारतीय भाषाएं अपने इलाकों की उपराष्ट्रीयताओं की अभिव्यक्ति ही नहीं, अस्तित्व बोध की भी वाहक रही हैं. इन अर्थों में राजनीतिक ताकत भी रही हैं. इसके बावजूद कम से कम सर्वोच्च अदालती कार्यवाही के लिए वे अंग्रेजी के सामने एक तरह से उपेक्षित ही रही हैं.
कभी हिंदी के बहाने तो कभी स्थानीय भाषाबोध की वजह से उच्च न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं और हिंदी के प्रयोग की मांग उठती रही है. लेकिन अब न्यायतंत्र की जिम्मेदार हस्तियों का नजरिया बदलने लगा है. मद्रास हाईकोर्ट के नए प्रशासनिक भवन के शिलान्यास के वक्त प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमणा का यह कहना कि मंत्र जाप जैसी कानूनी प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए, दरअसल भारतीय भाषाओं के प्रति उच्च न्यायपालिका के बदलते नजरिये का प्रतीक है.
न्यायतंत्र का नजरिया बदलने की वजह है संविधान का अनुच्छेद 348, जिसके भाग एक के अनुसार जब तक संसद कानून नहीं बनाती, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की पूरी कार्यवाही अंग्रेजी में ही होगी. एन.वी. रमणा ने दरअसल इसी कार्यवाही का जिक्र किया है. सनातन समुदाय के जन्म, मरण, मुंडन-जनेऊ, विवाह आदि सभी संस्कारों में पुरोहित का मंत्रपाठ अनिवार्य व्यवस्था है. जिस तरह इन मंत्रों को ज्यादातर लोग नहीं समझते, उच्च न्यायपालिका की कार्यवाही को ज्यादातर फरियादी या वादी नहीं समझ पाते.
भाषा वहां दिक्कत बनकर उठ खड़ी होती है. एन. वी. रमणा को इन्हीं अर्थों में उच्च न्यायपालिका का कर्म मंत्रोच्चार जैसा ही लगता है. गांधीजी ने जब भाषा पर विचार किया था तो उन्होंने स्वाधीन भारत में अपनी भाषा में न सिर्फ शासन, बल्कि न्याय की भी बात की थी. निश्चित तौर पर उनकी भाषा हिंदी थी. लेकिन हिंदी पर विशेषकर तमिलनाडु राज्य से उकसाने वाली राजनीति की वजह से हिंदी को उसका स्थान नहीं मिल पाया. लेकिन उच्च न्यायपालिका में लोक या राज्य की भाषा के व्यवहार की मांग ठंडी नहीं पड़ी.
संविधान निर्माताओं को भावी भारत की इस चुनौती का भान था. यही वजह रही कि संविधान के अनुच्छेद 348 के ही भाग दो में विशेष प्रावधान किया गया. इसके मुताबिक राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की सहमति से अपने राज्य के आधिकारिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी या अन्य भाषा के उपयोग को हाईकोर्ट की कार्यवाही के लिए अधिकृत कर सकता है.
राजभाषा अधिनियम, 1963 भी ऐसी ही बात करता है. इस कानून की धारा 7 के तहत प्रावधान है कि अंग्रेजी भाषा के अलावा किसी राज्य की हिंदी या आधिकारिक भाषा के उपयोग को राज्य के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की सहमति से अधिकृत किया जा सकता है. इसी प्रावधान के तहत राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार के उच्च न्यायालयों में कार्यवाही, निर्णय और आदेश के लिए हिंदी के उपयोग को भी अधिकृत किया गया है.
सशक्तिकरण की अवधारणा के चलते अब समाज के तमाम वर्गों में चेतना बढ़ी है. यही वजह है कि उच्च न्यायपालिका में अंग्रेजी की अनिवार्यता पर कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष सवाल उठते हैं. इसका भान राजनीति को भी है और राष्ट्रपति को भी.
शायद यही वजह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक कार्यक्रम में सितंबर 2021 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा था, “सभी को समय से न्याय मिले, न्याय व्यवस्था कम खर्चीली हो, समान्य आदमी की समझ में आने वाली भाषा में निर्णय लेने की व्यवस्था हो और खासकर महिलाओं और कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय मिले, यह हम सबकी जिम्मेदारी है.”
राष्ट्रपति सामान्य आदमी की समझ में आने वाली भाषा की बात कर रहे हैं तो प्रधान न्यायाधीश जिसे मंत्रोच्चार कह रहे हैं, प्रकारांतर से दोनों न्याय तंत्र में भारतीय भाषाओं के प्रवेश की ही वकालत कर रहे हैं. दोनों ही उदाहरण न्यायतंत्र में लोक की पहुंच के प्रति सकारात्मक नजरिये का ही प्रतीक हैं.