ब्लॉग: यात्रा की उपलब्धियों को अब बचाने की राहुल गांधी के सामने चुनौती, गेंद अब भी उनके पाले में...बस करना है ये एक काम

By अभय कुमार दुबे | Published: March 16, 2023 09:33 AM2023-03-16T09:33:52+5:302023-03-16T09:33:52+5:30

अगर विपक्ष को राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एकजुट होना है तो उसे एक एंकर पार्टी चाहिए होगी जो धुरी की तरह काम कर सके और सभी दल जमा इसके इर्दगिर्द जमा हो सकें. कांग्रेस ये भूमिका निभा सकती है लेकिन इससे पहले उसे एक बड़ा काम करना होगा। 

Challenge before Rahul Gandhi to save the achievements of Bharat Jodo Yatra | ब्लॉग: यात्रा की उपलब्धियों को अब बचाने की राहुल गांधी के सामने चुनौती, गेंद अब भी उनके पाले में...बस करना है ये एक काम

ब्लॉग: यात्रा की उपलब्धियों को अब बचाने की राहुल गांधी के सामने चुनौती, गेंद अब भी उनके पाले में...बस करना है ये एक काम

भारत जोड़ो यात्रा के सफल समापन के बाद राहुल गांधी ने अब तक जो किया है, उसके बारे में राय बंटी हुई है. एक राय उनकी है जिन्हें राहुल गांधी हर हाल में अच्छे लगते हैं. इन लोगों की मान्यता है कि उन्होंने रायपुर अधिवेशन में शानदार भाषण दिया. उससे पहले संसद में अडानी के मसले पर सरकार के ऊपर जबरदस्त हमला बोला जिससे सरकार बचाव की मुद्रा में चली गई. फिर, उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के मंच से मोदी सरकार के तहत भारत में लोकतंत्र के क्षय का सवाल उठाया, और अंतरराष्ट्रीय श्रोताओं के सामने अपनी बात सफाई से रखी. लेकिन, इसके विपरीत एक राय उनकी भी है जो राहुल गांधी की यात्रा-उपरांत गतिविधियों और वक्तव्यों को न केवल अपर्याप्त मानते हैं, बल्कि यहां तक कहते हैं कि अगर उनका रवैया यही रहा तो वे जल्दी ही भारत जोड़ो यात्रा की उपलब्धियों को खो देंगे.

इन लोगों की निराशा के मुख्य तौर पर तीन कारण हैं. पहला, यात्रा के बाद राहुल का संदेश कुछ इस तरह का है कि भारत का भविष्य अंधकारमय है. कोई उम्मीद नहीं बची है. यहां लोकतंत्र मर चुका है। कुल घरेलू उत्पाद गिर रहा है. भूख, महंगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है. मोदी सरकार द्वारा चलाए जा रहे ‘फील गुड नैरेटिव’ के मुकाबले ये बातें कांग्रेस के समर्थकों को अच्छी जरूर लगती हैं, लेकिन प्रगतिकांक्षी और युवा भारत के लिए यह एक ‘डार्क नैरेटिव’ है. इससे राहुल की सकारात्मक छवि नहीं बनती. 

दूसरा, कैंब्रिज विश्वविद्यालय के मंच से उन्होंने जिस तरह से पश्चिमी लोकतंत्रों को आड़े हाथों लिया कि वे भारत में लोकतंत्र के क्षय को लेकर कोई कदम नहीं उठा रहे हैं—वह एक तरह से भारत के अंदरूनी मामलों में विदेशी हस्तक्षेप  की मांग जैसा ही है. एक आत्मविश्वस्त नेता को तो यह दमखम दिखाना चाहिए कि वह लोकतंत्र की बागडोर उन लोगों से छीन लेने के लिए तत्पर है जो लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहे हैं. 

विदेशी ताकतों से अपील का मतलब तो यह हुआ कि आप अपनी बेचारगी का मुजाहिरा भी कर रहे हैं. तीसरा, राहुल गांधी और उनके रणनीतिकार अभी तक ऐसी किसी योजना पर अमल करते नहीं दिखे हैं जिससे लगता हो कि वे उन समुदायों के वोट दोबारा हासिल करना चाहते हैं जो धीरे-धीरे उनका साथ छोड़कर भाजपा या अन्य गैर-कांग्रेस दलों में जा चुके हैं.

भारत जोड़ो यात्रा का एक चुनावी पहलू भी था. वह था मुसलमान वोटरों को एक बार फिर अपनी ओर खींचने के लिए दिया गया ‘मुहब्बत का पैगाम’. मैं समझता हूं कि इसमें राहुल को काफी कुछ सफलता भी मिली है, और इसका असर अगले लोकसभा चुनाव में दिखाई पड़ सकता है. इसका नुकसान समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे मुसलमान वोटों के दावेदार संगठनों को भी होने जा रहा है. लेकिन, अगर ऐसा हुआ भी तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि मोदी के उभार के बाद उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता निष्ठापूर्वक भाजपा विरोधी मतदान करने के बावजूद चुनाव परिणाम पर कोई प्रभाव डालने में नाकाम रहे हैं. 

लोकतंत्र बहुमत का खेल है, और देश में हिंदुओं का विशाल बहुमत है. मुसलमान वोटर किसी बड़े हिंदू समुदाय के साथ जुड़कर ही चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं. उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता आमतौर पर पिछड़ी और दलित जातियों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों को समर्थन देते रहे हैं. बाकी जगहों पर वे कांग्रेस के निष्ठावान वोटर हैं.

दिक्कत यह है कि कथित रूप से सेक्युलर राजनीति करने वाली इन पार्टियों को हिंदू मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने त्याग दिया है. हिंदू राजनीतिक एकता के तहत 42 से 50 फीसदी के आसपास हिंदू वोट एक जगह जमा हो जाते हैं. इससे मुसलमान वोटरों की प्रभावकारिता नष्ट हो जाती है.

अगर इलेक्टोरल इम्पैक्ट फैक्टर (ईआईएफ) के इंडेक्स पर नजर डाली जाए तो साफ हो जाता है कि उत्तर भारत में जैसे ही चुनावी होड़ में आज तक अदृश्य रहे जातिगत समुदाय ऊंची जातियों और लोधी-काछी जैसे गैर-यादव पिछड़े मतों के साथ जुड़ते हैं, वैसे ही यह इम्पैक्ट फैक्टर भाजपा के पक्ष में झुक जाता है, और मुसलमान वोटों के लिए इसका नतीजा शून्य में बदल जाता है.

गुजरात में बहुत बुरी पराजय, हिमाचल की जीत के रूप में मिले एक सांत्वना पुरस्कार और त्रिपुरा में फिर से हार के बाद अब राहुल को केवल एक काम करना है. उन्हें कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव जीतने ही हैं. अगर विपक्ष को राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एकजुट होना है तो उसे एक एंकर पार्टी चाहिए होगी जो धुरी की तरह काम कर सके और जिसके इर्दगिर्द सभी दल जमा हो सकें. 

अभी कांग्रेस उस एंकर पार्टी की छवि से वंचित है. इन तीन चुनावों को जीतते ही ममता बनर्जी, शरद पवार और अरविंद केजरीवाल को कांग्रेस में वह ताकत दिखने लगेगी. ये नेता जानते हैं कि फिलहाल उनकी पार्टियां गैर-भाजपावाद की धुरी नहीं बन सकतीं. गेंद पूरी तरह से राहुल गांधी के पाले में है कि वे भाजपा विरोधी शक्तियों की अपेक्षाओं को कैसे पूरा करते हैं.

Web Title: Challenge before Rahul Gandhi to save the achievements of Bharat Jodo Yatra

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