ब्लॉग: संसद में हंगामा, देश को इससे क्या हासिल होगा?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: July 28, 2022 02:11 PM2022-07-28T14:11:22+5:302022-07-28T14:13:18+5:30
संसद में कामकाज के घंटे और उत्पादकता में लगातार गिरावट आती जा रही है. 1952 से 1970 तक लोकसभा की औसतन 121 बैठकें हुआ करती थीं जो अब 50 के आसपास सिमट गई है.
संसद का मानसून सत्र फिर हंगामे की भेंट चढ़ रहा है और जनता की गाढ़ी कमाई के भी करोड़ों रु. जनप्रतिनिधियों के आचरण के कारण बर्बाद हो रहे हैं. जनता और लोकतंत्र के हितों की हमेशा दुहाई देने वाले सांसद को संसद ठप कर लोकतंत्र का कौन सा भला और आम आदमी का कौन सा कल्याण कर रहे हैं. हंगामा कर उन्हें क्या हासिल हो रहा है?
अगर वे यह सोचते हैं कि सदन की कार्यवाही ठप कर वे जनता के मसीहा बनकर उभरेंगे, तो उनकी गलतफहमी है. उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि संसद तथा विधानमंडलों एवं अन्य लोकतांत्रिक मंचों पर आम आदमी हंगामा नहीं, अपने देश के हितों की बात होते देखना चाहता है. देश में संसद तथा विधान मंडलों में महज हंगामा ही नहीं शालीनता को तार-तार कर देने वाले दृश्य भी कई बार देखने को मिले हैं.
हाथापाई और कुर्सी या माइक से एक-दूसरे पर हमला करने की घटनाएं भी संसद एवं विधानमंडलों में हुई हैं. संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही पर हर घंटे डेढ़ करोड़ रु. खर्च होते हैं. ऐसा नहीं है कि सांसद या विधायक इस तथ्य को नहीं जानते लेकिन कहीं न कहीं वे इस मुगालते में हैं कि वे जितना हंगामा करेंगे, सदन की कार्यवाही को बाधित करेंगे देश का उतना ही ध्यान आकर्षित करेंगे तथा जनता की नजरों में उनकी छवि एक ‘योद्धा’ के रूप में स्थापित हो जाएगी.
पिछले कुछ वर्षों से संसद के दोनों सदनो में विपक्ष का हंगामा एक स्थायी भाव हो गया है. आम आदमी यह मानकर चलता है कि हंगामे के बिना संसद या विधानमंडल का सत्र पूरा नहीं होगा. जिन मसलों पर गंभीर बहस कर जनता का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है, उन्हीं मसलों को लेकर सदन की कार्यवाही ठप कर दी जाती है.
आजादी के 15 वर्षों तक तो संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलती रही. 1962 में गोडे मुरहरि को हंगामा करने पर राज्यसभा की शेष कार्यवाही के लिए निलंबित कर दिया गया था. 1989 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की जांच करनेवाले ठक्कर आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश करने की मांग पर विपक्ष ने इतना जबर्दस्त हंगामा किया कि 63 सांसदों को निलंबित करना पड़ा था.
हंगामे के लिए किसी एक पार्टी को जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता. जो दल विपक्ष में होते हैं, सत्ता में आते ही अपना रवैया बदल देते हैं. वे विपक्ष को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने लगते हैं. हंगामे के कारण संसद में जनता से जुड़े महत्वपूर्ण मसलों पर चर्चा नहीं हो पाती, नए बिल पारित नहीं हो पाते, संवेदनशील विधेयकों को संसद की स्थायी समिति के पास भेजने में अवरोध पैदा होता है.
संसद में कामकाज के घंटे तथा उत्पादकता में लगातार गिरावट आती जा रही है. 1952 से 1970 तक लोकसभा की औसतन 121 बैठकें हुआ करती थीं जो वर्ष 2000 तक गिरकर 68 हो गई और अब तो वह 50 के आसपास सिमट गई है. स्थायी समिति के पास भेजे जाने वाले विधायकों की संख्या भी घटकर आधी अर्थात 20 से 25 रह गई है.
संसद के मानसून सत्र की शुरुआत हंगामे से हुई और बुधवार को भी कामकाज सुचारू रूप से नहीं हो सका. सोमवार को चार, मंगलवार को 19 तथा बुधवार को ‘आप’ के सांसद संजय सिंह को निलंबित कर दिया गया. मंगलवार को जिन 19 सांसदों पर कार्यवाही हुई, वे सब राज्यसभा के सदस्य हैं जिसे भद्रजनों और बुद्धिजीवियों का सदन कहा जाता है.
हंगामा महंगाई, जांच एजेंसियों के कथित रूप से दुरुपयोग तथा अन्य कई मसलों को लेकर हो रहा है. इन सभी मुद्दों पर गंभीर बहस हो सकती है, क्योंकि वे सीधे आम आदमी एवं राष्ट्रीय हितों से जुड़े हुए हैं. प्रतिनिधियों के आचरण पर पूरे देश की निगाहें लगी रहती हैं.
युवा पीढ़ी उनमें अपना आदर्श देखती है. देश को उम्मीद रहती है कि जनप्रतिनिधि गंभीरता से महत्वपूर्ण मसलों पर चर्चा में हिस्सा लेंगे. दुर्भाग्य से जनता की उम्मीदों पर पानी फिर रहा है तथा लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो रही हैं. जन प्रतिनिधियों को अपने आचरण पर आत्म चिंतन करना चाहिए.