ब्लॉग: कहीं सूखा तो कहीं बाढ़....इंसानों के बेजा दखल के विरुद्ध प्रकृति की नाराजगी का संकेत

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: August 2, 2022 01:25 PM2022-08-02T13:25:39+5:302022-08-02T13:25:39+5:30

विकास के नाम पर पिछले दशकों में प्रकृति से बरती गई क्रूरता का खमियाजा अब मनुष्यों को भुगतना पड़ रहा है. कहीं भूस्खलन हो रहे हैं, कहीं हिमस्खलन तो कहीं एक के बाद हो रही बादल फटने की घटनाएं भी लोगों को आतंकित किए हुए हैं.

Blog: uneven monsson rain, a sign of nature displeasure against the undue interference of humans | ब्लॉग: कहीं सूखा तो कहीं बाढ़....इंसानों के बेजा दखल के विरुद्ध प्रकृति की नाराजगी का संकेत

प्रकृति की चेतावनी को समझें (प्रतीकात्मक तस्वीर)

कोई दो महीने पहले, मई के आखिरी दिन मौसम विज्ञान विभाग ने इस साल देश में सामान्य से अधिक मानसूनी बारिश की संभावना जताई तो न सिर्फ किसानों में खुशी की लहर दौड़ गई थी बल्कि फसलों की बंपर पैदावार के साथ महंगाई पर अंकुश की उम्मीदें भी नए सिरे से हरी हो गई थीं. होतीं भी क्यों नहीं, मानसून सीजन के दीर्घकालिक औसत की 103 प्रतिशत बारिश का अनुमान लगाया गया था. इस दावे के साथ कि यह लगातार चौथा साल होगा, जब देश में सामान्य मानसूनी बारिश होगी और कम बारिश के दौर से सामना नहीं होगा.

ये सारी भविष्यवाणियां लेकिन औंधे मुंह गिर गईं और मानसून इतना असामान्य हो गया कि देश के कुछ राज्य अतिवृष्टि के शिकार होकर भीषण बाढ़ की समस्या से दो चार  हुए तो कई अन्य राज्यों में सूखे जैसे हालात पैदा हो गए. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की बात करें तो अभी प्रदेश की कुल खेती योग्य भूमि के 40 प्रतिशत में भी बोआई नहीं हो पाई है.  

लेकिन दूसरे पहलू पर जाएं तो समस्या इससे भी ज्यादा विकट और किसी एक फसल तक सीमित न होकर दीर्घकालिक दिखती है. खासकर जब इस सवाल का सामना करें कि हमारे देश में जिस मानसून को वर्षा ऋतु का अग्रदूत मानकर उसकी समारोहपूर्वक अगवानी की परंपरा रही है और उसके आगमन पर उत्सव मनाए जाते रहे हैं, अपनी संभावनाओं के सारे आकलनों व भविष्यवाणियों को नकारकर वह अब इस कदर कहीं डराने और कहीं तरसाने क्यों लगा है? जैसा कि वैज्ञानिक कहते हैं, अगर यह जलवायु परिवर्तन के चलते है तो क्या इसके लिए हम खुद ही दोषी नहीं हैं? 

क्या यह प्रकृति के काम में मनुष्य के बेजा दखल के विरुद्ध प्रकृति की नाराजगी का संकेत नहीं है और देश के कई राज्यों में बाढ़ के पानी में डूबे गांव-शहर उसकी इस नाराजगी की बानगी ही नहीं हैं?

गौरतलब है कि प्रकृति की यह नाराजगी मानसून को ही असामान्य नहीं बना रही, इसके चलते कहीं भूस्खलन हो रहे हैं, कहीं हिमस्खलन तो कहीं एक के बाद हो रही बादल फटने की घटनाएं भी लोगों को आतंकित किए हुए हैं.

निस्संदेह, इन सबके पीछे हमारी विलासितापूर्ण जीवन शैली भी है. इस शैली के लोभ में हमने विकास के जिस मॉडल को चुना है, उसमें प्रदूषण उगलते कारखाने, सड़कों पर वाहनों के सैलाब, वातानुकूलन की संस्कृति, जंगलों के कटान व पहाड़ों से निर्मम व्यवहार ने ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने और प्रकृति को उकसाने में अहम भूमिका निभाई है. क्या आश्चर्य कि इससे ऋतुचक्र में अप्रत्याशित व अनपेक्षित परिवर्तन हो रहे हैं और हमें विकास के नाम पर पिछले दशकों में प्रकृति से बरती गई क्रूरता का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है? 

 

Web Title: Blog: uneven monsson rain, a sign of nature displeasure against the undue interference of humans

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