ब्लॉग: लोकतंत्र में छोटे दलों का संक्रमण काल

By राजेश बादल | Published: December 14, 2023 10:35 AM2023-12-14T10:35:06+5:302023-12-14T10:36:58+5:30

किसी एक समुदाय या जाति या मजहब की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी भारतीय संविधान की भावना का आदर भी नहीं करती। जब वह क्षेत्रीय दल अपनी-अपनी जाति या संप्रदाय का प्रवक्ता बनकर काम करता है तो उसमें लोकतंत्र भी नदारद रहता है।

Blog Transition period of small parties in democracy | ब्लॉग: लोकतंत्र में छोटे दलों का संक्रमण काल

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

Highlightsक्षेत्रीय सियासी पार्टियों के लिए आने वाला समय बहुत मुश्किल भरा हो सकता है भारतीय संस्कृति में विविधता को देखते हुए कभी ये प्रादेशिक दल लोकतंत्र के गुलदस्ते मान लिए गए थे सियासी स्थिति है कि प्रादेशिक पार्टियों से सहयोग का रास्ता भी खुला रखा जाए

नई दिल्ली: भारत में छोटी और क्षेत्रीय सियासी पार्टियों के लिए आने वाला समय बहुत मुश्किल भरा हो सकता है। वे इतिहास के उस मोड़ पर हैं, जहां राष्ट्रीय पार्टियां उनके अस्तित्व के लिए अब चुनौती बनती जा रही हैं। भारतीय संस्कृति में विविधता को देखते हुए कभी ये प्रादेशिक दल लोकतंत्र के गुलदस्ते मान लिए गए थे. मगर शनैः-शनैः इस गुलदस्ते से सुगंध काफूर हो गई। हालिया पांच प्रदेशों के विधानसभा चुनाव इसकी बानगी पेश करते हैं। दोनों बड़ी पार्टियों के बीच मत प्रतिशत की गलाकाट स्पर्धा थी. इसलिए कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के सामने अपने वोट बैंक में निर्णायक बढ़त हासिल करने की चुनौती थी। दूसरी ओर बहुमत नहीं मिलने की आशंका को देखते हुए प्रादेशिक दलों के एक-दो विधायक भी उनके लिए मायने रखते थे। इसके मद्देनजर वे क्षेत्रीय दलों के एक या दो फीसदी वोटों की भी उपेक्षा नहीं कर सकती थीं।

यह दिलचस्प सियासी स्थिति है कि प्रादेशिक पार्टियों से सहयोग का रास्ता भी खुला रखा जाए और उनके वोट बैंक में सेंध लगाकर अपना जनाधार भी बढ़ाया जाए। छोटी पार्टियों के लिए दोनों बड़ी पार्टियों की महाभारत में अपना वोट बैंक बचा कर रखने की चुनौती भी थी। इसके अलावा एक दृश्य और भी दिखाई दिया। मिजोरम में एक नवोदित पार्टी दूसरी छोटी पार्टी के लिए ही गंभीर चुनौती बन गई और बड़ी पार्टियों के लिए दरवाजे एक तरह से बंद रहे। तेलंगाना में राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने क्षेत्रीय पार्टी भारत राष्ट्र समिति को सत्ता से बाहर कर दिया। बीआरएस अपना आकार बढ़ाने और राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करने का सपना ही देखती रही। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो क्षेत्रीय दलों का एक तरह से सफाया ही हो गया। 

बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी तथा अन्य छोटे दलों को इन राज्यों ने भारी झटका दिया। भारतीय जनता पार्टी के जनाधार की बाढ़ में सारे छोटे दलों का वोट बैंक भी बह गया। इससे पहले हमने उत्तरप्रदेश में भी देखा था, जब विधानसभा चुनाव के परिणाम बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के लिए करारा संदेश लेकर आए थे। जिस प्रदेश में इन पार्टियों ने जन्म लिया, उसी प्रदेश में उनका मत प्रतिशत तेजी से गिरा है।

वैसे तो भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र किसी भी नए दल का उगना नहीं रोकता। अगर वह पार्टी ठोस वैचारिक आधार, देश के साझा विरासत वाले ढांचे और विकास के व्यावहारिक स्वरूप के साथ अपना रास्ता बनाती है तो भारतीय लोकतंत्र उसका स्वागत करता है। शिखर पर उपस्थित राष्ट्रीय पार्टियों का आकार बड़ा होता है। उनमें नई पीढ़ी को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। यह भी नए दलों के अस्तित्व में आने का एक कारण है। उत्तरप्रदेश जैसे विराट आकार वाले प्रदेश में तो नई नस्ल ही नहीं, समाज के सभी वर्गों और जातियों को साथ लेकर भी राष्ट्रीय दल नहीं चल पा रहे थे। इससे अनेक समुदायों, जातियों, उपजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल पैदा हो गए। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और अपना दल इसका उदाहरण हैं। भारत में सबसे अधिक आदिवासी मध्यप्रदेश में रहते हैं और उनमें भी गोंड आदिवासियों की संख्या अनेक राज्यों की कुल आबादी से भी अधिक है। मगर विकास की मुख्य धारा में उनकी लगातार उपेक्षा के कारण गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने जन्म लिया।

मेरा मत है कि किसी एक समुदाय या जाति या मजहब की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी भारतीय संविधान की भावना का आदर भी नहीं करती। जब वह क्षेत्रीय दल अपनी-अपनी जाति या संप्रदाय का प्रवक्ता बनकर काम करता है तो उसमें लोकतंत्र भी नदारद रहता है। सामूहिक नेतृत्व ही जम्हूरियत की बुनियादी शर्त है और कमोबेश सारी पार्टियां इस पैमाने पर नाकाम रही हैं। वे पुरातन कबीलों की संरचना के आधार पर काम कर रही हैं। वे शुरुआत में सियासी वजूद बनाए रखने के लिए सजातीय वोटों को लुभाकर साथ लाती हैं। पर, बाद में उनके निजी हितों को नहीं साध पातीं. इससे उनका जनाधार खिसकने लगता है। तेलंगाना, महाराष्ट्र, बिहार, पंजाब, तमिलनाडु, आंध्र और उत्तरप्रदेश ऐसी ही प्रादेशिक पार्टियों का उदाहरण हैं। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी उत्तरप्रदेश में पनपीं, लेकिन उसी प्रदेश में वे आज अपने सबसे दुर्बल आकार में दिखाई देती हैं। अपने जन्म के पच्चीस साल बाद भी उनका कोई राष्ट्रीय सपना नहीं था और न भारत का गणतंत्र उनको अखिल भारतीय स्तर पर स्वीकार कर पाया।

वास्तविकता तो यह भी है कि प्रादेशिक दल अन्य प्रदेशों में अब अपने उम्मीदवार इसीलिए मैदान में उतारते हैं क्योंकि प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता बनाए रखने के लिए उन्हें मतों की निर्धारित संख्या जरूरी होती है। वे राष्ट्रीय स्वरूप में उभरना ही नहीं चाहते. इन छोटी पार्टियों के संस्थापकों ने जितना विस्तार पार्टी को दिया था, आज भी वह उतना ही है. उसे आधुनिक और राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक भूमिका देने की बात ही इन दलों ने नहीं सोची। इसका खामियाजा कमोबेश सारे छोटे दलों ने भुगता है। आधुनिक लोकतंत्र परंपरागत तौर-तरीकों से नहीं चलाया जा सकता, यह प्रादेशिक पार्टियों को समझना होगा. यह अजीब सा लगता है कि डीएमके, एआईडीएमके या बीजू जनता दल जैसे क्षेत्रीय दल दशकों से अपनी सीमित भूमिका से ही संतुष्ट नजर आते हैं। पर, उनके लिए भी मौजूदा दौर बड़ी चुनौतियां लिए खड़ा है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने बिहार में जो आशंका जताई थी, वह निर्मूल नहीं थी। उन्होंने कहा था कि सारे क्षेत्रीय, प्रादेशिक और छोटे दल धीरे-धीरे समाप्त हो सकते हैं। इस सोच के पीछे दो ही कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि राष्ट्रीय दल जनाधार बढ़ाना चाहते हों और दूसरा यह कि क्षेत्रीय दलों ने विराट स्वरूप की कामना करना ही छोड़ दिया हो। दोनों ही स्थितियां लोकतंत्र के लिए कोई बहुत शुभ संकेत नहीं हैं।

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