ब्लॉगः सुशासन की कीमत पर मुफ्तखोरी को बढ़ावा!

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 18, 2023 01:16 PM2023-08-18T13:16:08+5:302023-08-18T13:17:04+5:30

बेशक, एक समय था जब कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी जैसे राजनीतिक दल भारतीय राज्यों में चुनाव-दर-चुनाव जीतते रहे। यह या तो मतदाताओं द्वारा एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के समर्थन के कारण था या किसी विशेष नेता (जैसे जवाहरलाल नेहरू या ज्योति बसु) की निजी ऊंचाइयों के कारण था कि जनता ने पार्टी को दुबारा वोट दिया।

Blog Promotion of freebies at the cost of good governance | ब्लॉगः सुशासन की कीमत पर मुफ्तखोरी को बढ़ावा!

फाइल फोटो।

अभिलाष खांडेकर: सत्ता में वापस आने के लिए मतदाताओं को लुभाना एक ऐसा राजनीतिक खेल है जिसे पार्टियां सदियों से खेलती आ रही हैं। यह केवल लोकतंत्र की जननी (भारत) तक ही सीमित नहीं है। जैसे-जैसे भारत में राजनीति वास्तविक ‘सेवा’ (जनता और राष्ट्र की सेवा) से अपनी स्वार्थसिद्धि में बदलती गई, राजनेताओं और पार्टियों के खेल के नियम तेजी से बदलने लगे। लक्ष्य बना किसी भी तरह से सत्ता में बने रहना। बेशक, एक समय था जब कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी जैसे राजनीतिक दल भारतीय राज्यों में चुनाव-दर-चुनाव जीतते रहे। यह या तो मतदाताओं द्वारा एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के समर्थन के कारण था या किसी विशेष नेता (जैसे जवाहरलाल नेहरू या ज्योति बसु) की निजी ऊंचाइयों के कारण था कि जनता ने पार्टी को दुबारा वोट दिया। माकपा बंगाल के भूमि सुधारों और भाजपा की तरह ही अपने कट्टर कार्यकर्ताओं के कारण वापस सत्ता में आई थी। आजादी के बाद पहले कुछ दशकों तक देश भर में कांग्रेस पार्टी का ज्यादा विरोध नहीं था और अधिकांश भारतीय राज्यों में उसकी सरकारें थीं। एक राजनीतिक मुहावरे या सिद्धांत के रूप में ‘सुशासन’ तब पैदा भी नहीं हुआ था - इसे 1992 में विश्व बैंक द्वारा पहली बार गढ़ा गया था। लेकिन शासन के जो भी तरीके प्रचलित थे, उन्हें कांग्रेस के लिए वोट करने के लिहाज से शायद अच्छा माना जाता रहा। लोगों की तब उम्मीदें काफी कम थीं। समाज काफी हद तक अशिक्षित था, इसलिए पर्याप्त सड़कें, अस्पताल और स्कूल या यहां तक कि बिजली या खाद्य आपूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं के बिना भी वे एक ही पार्टी को लगातार विजयी बनाते रहे।

आज देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रमुग्ध कर देने वाले नेतृत्व से अभिभूत है, जो लगातार दो लोकसभा चुनाव जीतकर नई दिल्ली में पूर्णकालिक सरकार बनाने वाले पहले भाजपा नेता हैं। नेहरू, इंदिरा गांधी और डॉ। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने पहले भी ऐसा किया था। फिर भी, अब हम देख रहे हैं कि भाजपा, जो एक ‘अलग तरह की पार्टी’ है , मुफ्त की घोषणाएं करने में किसी से पीछे नहीं है, शायद इसलिए क्योंकि 2019 के चुनावों में भाजपा को पूरे भारत में लगभग 38% वोट मिले थे, हालांकि उसकी सीटें 2014 की तुलना में बहुत अधिक थीं। सत्ता में बने रहने की अभूतपूर्व लालसा या दबाव मुफ्त में वस्तुएं व सेवाएं बांटने (फ्रीबीज) के अंतहीन प्रलोभन को दुर्भाग्य से जन्म दे चुका है। सरकारों का शायद अपने ही अच्छे कार्यों पर से भरोसा उठ गया है और वे मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर मतदाता का सहारा ले रही हैं। सरकारें सीधे-सीधे अब वोट खरीदना चाहती हैं। मैं इसे साफ तौर पर उन सरकारों द्वारा ‘सुशासन’ के स्थान पर प्रकार-प्रकार की मुफ्त सुविधाएं देकर सत्ता में बने रहने के प्रयास के रूप में देखता हूं, जो इस वर्ष कई राज्यों में विधानसभा चुनाव और आसन्न आम चुनाव का सामना करने जा रही हैं। क्या किसी राजनीतिक दल को मुफ्त में चीजें नहीं देनी चाहिए? किसी सरकार को इसके लिए भुगतान क्यों करना चाहिए? हम एक कल्याणकारी राज्य हैं, कल्याण कुछ लोगों के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए साफ-सुथरी नीतियों के जरिये ही होना चाहिए।

जब दिल्ली सरकार ने मुफ्त में चीजें बांटना शुरू किया तो भाजपा ने उसकी आलोचना की; फिर तेलंगाना, राजस्थान और अन्य ने भी इसका अनुसरण किया। राज्य का खजाना खाली होने और भयानक कर्ज बढ़ाने में मध्य प्रदेश कई अन्य राज्यों से आगे निकलने के लिए बेताब है। आप किसी भी अखबार के पन्ने पलटें और आप पाएंगे कि जाति समूहों, आयु समूहों या धार्मिक समूहों को ‘लाभ पहुंचाने’ वाली सभी प्रकार की योजनाएं महंगे विज्ञापनों के रूप में पन्नों पर बिखरी हुई दिखाई देती हैं। इनमें से कोई मुफ्त राशन दे रहे हैं, दूसरा मुफ्त चिकित्सा सेवाएं दे रहा है, कोई छात्रों को लैपटॉप उपहार में दे रहा है और एक पार्टी लाडली बहना योजना के नाम पर महिलाओं को प्रति माह सीधे बैंक के माध्यम से 1000 रु। देने का प्रलोभन दे रही है।

भारत में राजनीतिक दलों के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है कि कौन सरकारी खजाने की कीमत पर अधिक मुफ्त वस्तुएं दे सकता है। दरअसल, मुफ्त चीजें सभी तक नहीं पहुंच रही हैं; निर्दोष और ईमानदार करदाताओं की कीमत पर, केवल एक या दो वर्गों के लोगों को मुफ्त सुविधाएं या सरकारी उपहार (स्कूटी, लैपटॉप, साइकिल आदि) तब दिए जा रहे हैं, जब चुनाव नजदीक हैं।

यदि अच्छी सड़कें, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, अपराध-मुक्त शहर, स्वच्छ हवा, भ्रष्टाचार-मुक्त समाज, अच्छी स्वास्थ्य योजनाएं, साफ पानी, महिलाओं को सुरक्षा, सुनियोजित शहर, शासन में पारदर्शिता एवं न्याय के रूप में सुशासन सुनिश्चित किया जाए, तो मुफ्त की चीजें देने की आवश्यकता ही न होगी। कई लोग मानते हैं कि बढ़ती मुफ्तखोरी सुशासन की जगह ले रही है। कुछ लोग इसे मतदाताओं को खुली रिश्वत देना या चुनावों में पहले से सरकारी-धांधली कहते हैं। दुर्भाग्य से, भारत का चुनाव आयोग असहाय है क्योंकि आदर्श आचार संहिता से पहले सभी मुफ्त चीजें लुटाई जा चुकी होती हैं। लेकिन आयोग के बारे में विस्तार से कभी अगली बार। वैसे आयोग कैसे चल रहा है, सभी जानते हैं।

शासन की गुणवत्ता में गिरावट और लोकतांत्रिक मूल्यों के तीव्र क्षरण को देखकर देश भर में आक्रोशित लोगों का सुझाव है कि यदि मुफ्त ही चीजें दी जानी हैं तो वे पार्टी के फंड से दी जानी चाहिए, सरकार द्वारा नहीं। हर हाल में, भाजपा और अन्य के पास पैसे की भरमार है - दानदाता या तो प्यार या डर के कारण वहां कतार लगाए हुए हैं। तो फिर देशभक्त करदाताओं के पैसे से भरे सरकारी खजाने को मुफ्त की वस्तुओं व सुविधाओं पर खाली क्यों किया जाए? यह देश पूछ रहा है। राजनीतिक दलों को वोट हासिल करने के लिए अपना पैसा खर्च करना चाहिए। इस मुद्दे पर हमारे देश में जनमत शायद एक हो।

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