ब्लॉगः गरीबी हटाना जरूरी है या अमीरी बढ़ाना?, पिछले 50 वर्षों में भारत में कई गुना बढ़ी गरीबी

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 30, 2023 09:29 AM2023-06-30T09:29:20+5:302023-06-30T09:31:34+5:30

दरअसल, सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के तहत पिछले 50 वर्षों में भारत में गरीबी कई गुना बढ़ी है। अफसोस, सरकार या समाज में इस पर विचार करने वाले ज्यादा लोग नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इस पर मंथन किया हो, याद नहीं पड़ता।

Blog Is it necessary to remove poverty or to increase wealth Poverty increased manifold in India last 50 years | ब्लॉगः गरीबी हटाना जरूरी है या अमीरी बढ़ाना?, पिछले 50 वर्षों में भारत में कई गुना बढ़ी गरीबी

ब्लॉगः गरीबी हटाना जरूरी है या अमीरी बढ़ाना?, पिछले 50 वर्षों में भारत में कई गुना बढ़ी गरीबी

अभिलाष खांडेकरः यह एक स्वीकृत तथ्य है कि गरीबी व्यक्तियों, परिवारों, समाजों और राष्ट्रों के लिए एक अभिशाप है। 1947 के बाद से सभी भारतीय सरकारों ने विभिन्न योजनाओं, घोषणाओं और कार्यों के माध्यम से गरीबी हटाने की बात कही है। लेकिन क्या वे सफल हुए? 75 साल बाद इस पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। हाल ही में जब मैंने एमएन बुच स्मृति व्याख्यान में ओडिशा के एक समाजशास्त्री-पर्यावरणवादी रिचर्ड महापात्रा की गंभीर व तथ्यपूर्ण बात सुनी, तब से मेरे दिमाग में गरीबी घूमने लगी।  

मेरी यादें लगभग 50 वर्ष पीछे चली गईं जब मैं इंदौर शहर में गरीब महिलाओं को सिर पर लकड़ी का बोझ उठाकर घर ले जाते हुए देखता था। वे अपने घरवालों का पेट भरने के लिए पूरा दिन उसे इकट्ठा करने में बिताती थीं। वास्तव में यह पूरे देश में एक आम दृश्य था और दुर्भाग्य से यह अभी भी जारी है। भारत की जनसंख्या जब 140 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है, मुंबई या दिल्ली में भी किसी गरीब महिला या भिखारी या गरीब बच्चों को ट्रैफिक प्वाइंट पर फूल या खिलौने बेचते हुए देखना आम हो गया है। ऑक्सफैम के अध्ययनों ने लगातार साबित किया है कि अमीर और गरीब के बीच विभाजन बढ़ रहा है। अगर राज्यों की बात करें तो बिहार की आधी आबादी (51 प्रतिशत) गरीब है, उसके बाद झारखंड, उप्र और मप्र (36 प्रतिशत) का नंबर आता है। एक हालिया अनुमान के मुताबिक, भारत में 22.9 करोड़ गरीब हैं जिससे यह गरीबों का सबसे बड़ा देश बन जाता है।

क्या पिछले सात दशकों में हालात बदले हैं? दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं है। गरीबी उन्मूलन के लिए बनाए गए कई कार्यक्रमों के बावजूद शहरी और ग्रामीण गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अफसोस की बात है कि गरीबों को राजनेता वोट बैंक के रूप में देखते हैं। यूपीए के समय में एक मंत्रालय था जिसे आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के नाम से जाना जाता था लेकिन अब उसका पता नहीं है। ग्रामीण भारत में गरीब तो अधिक हैं ही, शहरी गरीब भी बढ़ते शहरीकरण के वर्तमान समय में एक बड़ी चुनौती बने हैं।

कुछ साल पहले शहरी गरीबों पर एशियाई विकास बैंक (एडीबी) की रिपोर्ट में कहा गया था, ‘‘शहरी गरीबों को रोजगार प्रदान करके और बुनियादी सेवाओं व बुनियादी ढांचे के माध्यम से उनकी उत्पादक संपत्तियों को विकसित करके शहरी विकास प्रक्रिया में एकीकृत करने का उद्देश्य उनके गुणवत्तापूर्ण जीवन में सुधार करना है।’’ लेकिन भोपाल जैसे शहर देश में आज ‘झुग्गी-राजधानी’ के रूप में जाने जाते हैं। यह दुःखद है।

मोदी सरकार ने गरीबी के आकलन के तरीके में बदलाव किया जिससे चलते सुरेश तेंदुलकर या उनके पूर्ववर्ती अर्थशास्त्रियों द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) का पैमाना ही अप्रचलित हो गया। फिर मोंटेक सिंह अहलूवालिया या सी। रंगराजन जैसे तत्कालीन योजना आयोग के विशेषज्ञों के बीच ग्रामीण और शहरी नागरिकों की प्रतिदिन आय पर विवाद बाद के वर्षों में गरीबी की चर्चा पर हावी रहा।

रंगराजन समिति ने इस मुद्दे को ‘सुलझा’ लिया था। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 37 रुपए और शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 47 रुपए प्रति व्यक्ति से कम खर्च करने की क्षमता को गरीबी के रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें कहा गया था कि तेंदुलकर समिति के पहले के निष्कर्षों में संशोधन की आवश्यकता है ‘‘क्योंकि भारत में गरीबी काफी हद तक बढ़ गई है।’’ लेकिन अब हालात और खराब हैं। अर्थशास्त्री, जनसांख्यिकीविद, राजनेता और नौकरशाह गरीबी उन्मूलन की बात करते हैं लेकिन प्रौद्योगिकी और नई सोच के बावजूद कोई प्रभावी समाधान अभी तक नजर नहीं आ रहा।

क्या आपको 1971 याद है? और ‘गरीबी हटाओ, देश बचाओ’ का राजनीतिक नारा? इंदिरा गांधी रातों-रात लोकप्रिय नेता बन गईं और भावनात्मक अभियान के दम पर चुनाव जीत गईं। लेकिन गरीबी जहां थी वहीं रह गई।

दरअसल, सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के तहत पिछले 50 वर्षों में भारत में गरीबी कई गुना बढ़ी है। अफसोस, सरकार या समाज में इस पर विचार करने वाले ज्यादा लोग नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इस पर मंथन किया हो, याद नहीं पड़ता।

बेशक मुफ्त सुविधाओं, डीबीटी, पीएम आवास, पीएमआरवाई या मनरेगा आदि ने गरीबी को कम किया है लेकिन गति काफी धीमी है। इस चिंता में किसी की भी रातों की नींद नहीं उड़ती कि 80 करोड़ से अधिक भारतीय गरीबों को सरकार को राशन देना पड़ रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह वित्तीय समावेशन का एक अच्छा तरीका है। बेशक, प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि ‘दुनिया भी मानती है कि भारत में गरीबी कम हो रही है।’

पिछड़े राज्य ओडिशा से आने वाले महापात्रा की एक घंटे की प्रस्तुति ने सभी को स्तब्ध कर दिया था। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि भारत में गरीबी वंशानुगत है और बताया कि 1953 से 2023 तक न तो क्षेत्र बदला, न जिला और न ही लोगों का राज्य। पुराने और बड़े जिलों के विभाजन के कारण केवल जिले दोगुने हो गए। गरीबी जस की तस बनी हुई है। क्या रोजगार सृजन एक समाधान है? या अमीरी बढ़ाना? शायद।

उन्होंने कालाहांडी का उदाहरण दिया। विकास संबंधी चर्चाओं में ‘कालाहांडी’ एक अपशब्द था। लेकिन ओडिशा (29%) के नौकरशाहों का दावा है कि कालाहांडी 80 के दशक की तुलना में बेहतर हुआ है। आज भारत गरीबी के मामले में 13 वां सबसे गरीब देश है, देश के 150 जिले सबसे गरीब हैं और सरकारें असहाय नजर आती हैं। ग्रामीण भारत की तो बात ही छोड़िए, ‘झुग्गी विहीन शहर’ जैसे कार्यक्रम भी काफी हद तक विफल रहे हैं।

संक्षेप में मुझे यह छोटी सी कहानी बतानी चाहिए : इंदौर के आईआईएम में बातचीत के दौरान भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी ने कहा : ‘मैं गरीबी हटाओ की बात नहीं करता, मैं कहता हूं अमीरी बढ़ाओ (धन बढ़ाओ), जिससे अंतत: गरीबी मिटेगी।’तब से, गरीबों को तो भुला दिया गया है, हां, अंबानी निश्चित रूप से और अधिक अमीर हो गए हैं, खासकर पिछले एक दशक में।

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