ब्लॉग: उल्फा के साथ समझौते से पूर्वोत्तर में शांति की बंधती उम्मीद
By शशिधर खान | Published: January 2, 2024 10:24 AM2024-01-02T10:24:48+5:302024-01-02T10:31:12+5:30
नया साल पूर्वोत्तर में शांति के लिए शुभ माना जा सकता है क्योंकि 2023 समाप्त होते-होते असम और उत्तर पूर्वी राज्यों में 40 वर्षों से हिंसा का पर्याय बने यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम (उल्फा) के साथ त्रिपक्षीय समझौता शांति के एक नए युग की शुरुआत है।
नया साल पूर्वोत्तर में शांति के लिए शुभ माना जा सकता है क्योंकि 2023 समाप्त होते-होते असम और उत्तर पूर्वी राज्यों में 40 वर्षों से हिंसा का पर्याय बने यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम (उल्फा) के साथ त्रिपक्षीय समझौता शांति के एक नए युग की शुरुआत है। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन-आई एम) को छोड़ दें तो उल्फा के साथ शांति समझौते के बाद पूर्वोत्तर में हिंसा और अलगाववाद पर आधारित उग्रवादी का लगभग खात्मा हो गया है।
नगालैंड और मणिपुर में सक्रिय एनएससीएन के बाद पूर्वोत्तर क्षेत्र के सबसे मजबूत और खूंखार उग्रवादी गुट उल्फा का नेटवर्क असम ही नहीं समूचे पूर्वोत्तर तक पसरा हुआ था इसलिए उल्फा के साथ शांति समझौता सही मायने में ऐतिहासिक और बहुत बड़ी उपलब्धि है। एनएससीएन की तरह उल्फा के साथ भी सशस्त्र बलों की बदौलत और वार्ता के जरिये भी किसी नतीजे पर पहुंचना संभव नहीं हो पा रहा था। एनएससीएन की स्वतंत्र संप्रभु नगालिम की मांग भारत की आजादी के समय से चली आ रही है।
यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम (उल्फा) के अस्तित्व में आने की कहानी 1980 के दशक के असम छात्र आंदोलन के समय से जुड़ी है। हिंसा की बदौलत ‘स्वाधीन असोम’ की मांग भारत सरकार से मनवाने के लिए 1979-80 में उल्फा की नींव रखी गई। असम छात्र आंदोलन की आड़ में यह ऐसा उग्रवाद पनपा, जिसे भारत राष्ट्र से अलग ‘स्वाधीन असोम’ चाहिए था, जहां असमिया के अलावा कोई न रहे।
यह अच्छा संयोग रहा कि 29 दिसंबर को दिल्ली में हुए त्रिपक्षीय समझौते के समय उल्फा के संस्थापक अरविंद राजखोबा मौजूद थे, जो अभी-भी उल्फा के प्रमुख हैं। समझौते पर हस्ताक्षर करनेवाले अन्य उल्फा नेता अनूप चेतिया और शशाधर चौधुरी भी संस्थापकों में से हैं। यह त्रिपक्षीय समझौता केंद्र, राज्य सरकार और उल्फा नेताओं के बीच हुआ है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण तथा शुभ यह है कि ये लोग हिंसा छोड़कर भारतीय संवैधानिक दायरे के अंतर्गत राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल होने को राजी हुए हैं।
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा का इस समझौते को ‘ऐतिहासिक’ और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का 29 दिसंबर को असम का ‘स्वर्ण दिवस’ कहना सही है। 2009 में बांग्लादेश से प्रत्यर्पण संधि के बाद इन उल्फा नेताओं को भारत लाया गया। पहले कुछ दिन हिरासत में रखा गया, फिर शांति वार्ता शुरू हुई। 2011 से शांति वार्ताओं की जानकारी आने लगी। खुफिया अधिकारियों के प्रयास विफल होने के बाद असम के गणमान्य नागरिकों की भी मदद मिल गई, जिसमें प्रख्यात असमिया लेखिका ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता इंदिरा गोस्वामी भी शामिल थीं।