अभिलाष खांडेकर
बिहार हमेशा से ही सुर्खियों में रहता है और लगभग 95 प्रतिशत मामलों में यह गलत वजहों से होता है. बिहार पर ताजा ध्यान उसके लंबे समय से मुख्यमंत्री रहे, सत्ता के मोह में डूबे 74 वर्षीय नीतीश कुमार की वजह से नहीं, बल्कि भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) द्वारा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लागू करने के विवादास्पद तरीके की वजह से है. चुनाव कोई भी हो, यह कहना गलत नहीं होगा कि बिहार से राजनीति और विवादों को कभी अलग नहीं किया जा सकता. दशकों तक पिछड़े राज्य बिहार को ‘बीमारू’ कहा जाता रहा.
यह प्रतीकात्मक संक्षिप्त नाम बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के अंग्रेजी अक्षरों को मिलाकर बना था; अस्सी के दशक के मध्य में जनसांख्यिकीविद् प्रोफेसर आशीष बोस द्वारा इसे गढ़ा गया था, जिसके बाद से राज्यों का पिछड़ापन सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में ज्यादा हावी होने लगा और विकास की बातें होने लगीं.
कभी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का केंद्र रहे बिहार की गिरावट सभी क्षेत्रों में लगातार होती रही है और डरावनी भी है. लेकिन वहां से आईएएस व आईपीएस अधिकारी खूब निकलते हैं और फिर बाहर बस जाते हैं. अपराध, अराजकता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शीर्ष औद्योगिक घरानों का बिहार में प्रवेश से कन्नी काटना, विभिन्न घोटाले और राज्य की निराशाजनक शिक्षा प्रणाली आदि ने सामूहिक रूप से इस पूर्वी राज्य का नाम बदनाम किया है. अदानी समूह लगभग तीन साल पहले वहां गया था और भारी निवेश का आश्वासन दिया था.
शायद यह ‘एनडीए’ से पहले का दौर था जब नीतीश कुमार भाजपा के साथ गठबंधन करने और जब उन्हें असुविधा हो तब ‘एनडीए’ से खुद को दूर करने की उठापटक कर रहे थे. उस निवेश उत्सव 2023 के बाद वे पुनः एनडीए में शामिल हो गए थे. कितना निवेश वास्तव में वहां हुआ, इसका अनुमान भर ही लगाया जा सकता है, हालांकि पटना में भारी खर्च वाला निवेशक शिखर सम्मेलन बहुत भव्य था.
इस तरह के निवेशकों के सम्मेलन ज्यादातर भारतीय राज्यों में सालाना होते रहते हैं. पिछले महीने उत्तराखंड के ‘निवेश उत्सव’ में, किसी और ने नहीं बल्कि खुद अमित शाह ने कहा था कि आम तौर पर 5-10% समझौता ज्ञापनों (एमओयू) पर हस्ताक्षर होते हैं, लेकिन उत्तराखंड में यह 30% है.
उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में, अनिल अंबानी और उनका समूह वर्षों से ढेर सारी नौकरियों आदि का आश्वासन देकर ऐसे उत्सवों में भाग ले रहा था, लेकिन अब पूरा देश उस रिलायंस समूह की वास्तविकता जानता है जिसके प्रमुख अनिल अंबानी हैं. तो, हम बिहार की स्थिति की कल्पना कर सकते हैं, जहां नीतीश कुमार पहली बार 2005 में मुख्यमंत्री बने थे.
कायदे से अब तक तो इस समाजवादी नेता के नेतृत्व में बिहार का कायापलट हो जाना चाहिए था. लेकिन बिहारियों के लिए यह अभी भी एक दिवास्वप्न है. बिहार की साक्षरता दर लगभग 70 प्रतिशत रही है, जबकि महिला साक्षरता दर लगभग 60.5 प्रतिशत है. जैसा कि कुछ शिक्षाविद बताते हैं, आजकल के बेहद प्रतिस्पर्धी दौर में, सरकारी रिकॉर्ड में एक साक्षर व्यक्ति का कोई मतलब नहीं है.
वह ज्यादा से ज्यादा अपना नाम पढ़ सकता है और किसी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करके बैंक खाता खुलवा सकता है या ‘मनरेगा’ योजना में लाभार्थी के रूप में अपनी मजदूरी प्राप्त कर सकता है, बशर्ते ठेकेदार या सरकारी अधिकारी ईमानदार हो और गरीब मजदूर को धोखा न दे. इसे अब प्रगति का मापदंड नहीं मान सकते हैं.
मतदाता सूचियों की गहन जांच के लिए चुनाव आयोग द्वारा चलाए जा रहे मौजूदा अभियान के बीज इस बात में निहित हैं कि इस बदहाल राज्य में कुछ भी ठीक नहीं है. अगर आपको किसी प्यारे कुत्ते की तस्वीर वाला ‘कुत्ता बाबू’ के नाम से सरकारी प्रमाणपत्र मिल जाए, तो आप हालात का अंदाजा लगा सकते हैं.
सोनालिका ट्रैक्टर, सैमसंग और आईफोन जैसे नाम उन ‘लोगों’ के थे जिनके प्रमाणपत्र पटना के आसपास के सरकारी दफ्तरों से बने, जिससे दुनिया को बिहार सरकार की ‘कार्यकुशलता’ का पता चला. यह विवाद एसआईआर अभियान को लेकर नहीं है, बल्कि जैसा कि विपक्षी दलों और सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा,
इसमें एक प्रक्रियागत खामी की बू आती है जिसका उद्देश्य किसी समूह या समुदाय के नामों को हटाना है. बंगाल में एसआईआर अभियान की शुरुआत ने विपक्ष के तर्क को और पुष्ट किया. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि वह इस प्रक्रिया पर नजर रख रहा है और अंतिम फैसला देना अभी बाकी है. मेरा दृढ़ मत है कि चुनाव प्रक्रिया अत्यंत पारदर्शी, मतदाता-हितैषी और किसी भी सरकारी कुप्रभाव से स्वतंत्र होनी चाहिए.
पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग संदेह से परे नहीं रहा है. गुजरात में राज्यसभा चुनाव का एक प्रसिद्ध मामला सर्वविदित है, जब एक शक्तिशाली राजनेता अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त को लगातार फोन कर रहा था. एक अन्य अवसर पर, एक अत्यंत ईमानदार चुनाव आयुक्त को नौकरी छोड़नी पड़ी
क्योंकि वे राजनीतिक दबावों और नई दिल्ली स्थित निर्वाचन सदन में चल रही कथित अनियमितताओं का सामना नहीं कर सके थे. ईवीएम के दौर से पहले, बिहार सभी राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों में खुलेआम धांधली के लिए कुख्यात रहा था. उस समय चुनाव आयोग काफी कमजोर था.
दुर्भाग्य से, अब यह सत्तारूढ़ दल के प्रति पक्षपाती नजर आ रहा है. चुनाव आयुक्तों और स्वयं मुख्य चुनाव आयुक्त का राष्ट्र और अपनी अंतरात्मा के प्रति कर्तव्य है. एक संवैधानिक संस्था, जो कभी अपनी स्वतंत्रता के लिए जानी जाती थी, को इस अवसर पर आगे आना चाहिए. मुख्य चुनाव अधिकारी की स्वतंत्रता लोगों को दिखनी और महसूस भी होनी चाहिए.