बिहारः बदली राजनीतिक परिस्थितियों में भी नीतीश कुमार सबसे प्रासंगिक, पासवान के भी दोनों हाथ में लड्डू

By बद्री नाथ | Published: June 22, 2019 08:26 PM2019-06-22T20:26:25+5:302019-06-22T20:26:25+5:30

बिहार लोकसभा चुनाव विश्लेषणः बिहार की बदली राजनीतिक परिस्थितियों में भी नीतीश कुमार ने खुद प्रासंगिक बनाए रखा है। पढ़िए लोकसभा चुनाव में सूबे के राजनीतिक समीकरणों का पूरा विश्लेषण... 

Bihar Lok Sabha Election complete Analysis: How Nitish remains relevant in state politics | बिहारः बदली राजनीतिक परिस्थितियों में भी नीतीश कुमार सबसे प्रासंगिक, पासवान के भी दोनों हाथ में लड्डू

बिहारः बदली राजनीतिक परिस्थितियों में भी नीतीश कुमार सबसे प्रासंगिक, पासवान के भी दोनों हाथ में लड्डू

बिहार की राजनीति इन दिनों फिर चर्चा में है। इस महीने के पहले हफ्ते प्रशांत किशोर ममता बनर्जी से मिलकर आये थे। इसके बाद बिहार में मस्तिष्क ज्वर से बच्चों की मौत के बाद प्रांतीय और राष्ट्रीय मीडिया में चर्चाओं का दौर जारी रहा। हाल ही में लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान को एनडीए की तरफ से राज्य सभा का उम्मीदवार बनाया गया है। उम्मीदवार बनते ही उनका राज्य सभा में जाना लगभग तय हो गया है। यह कार्य तो अब हुआ है लेकिन इसकी पृष्ठभूमि काफी पहले पड़ चुकी थी।

प्रशांत किशोर के जेडीयू  को ज्वाइन करने के बाद अहम बदलाव होने लाजिमी थे। यह वो समय था जब बिहार में एनडीए  के घटक दलों की भाजपा से बगावत अपने चरम पर थी। हर रोज लोजपा और रालोसपा के द्वारा बीजेपी के साथ लोकसभा चुनाव में आने और न आने पर अपनी बातें रखनी शुरू कर दी थी। प्रशांत जब बिहार की राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय हुए तो चिराग पासवान से उनकी कई अनौपचारिक मुलाकातों की भी चर्चाएँ भी खूब चल रही थी। चिराग भी एक के बाद एक कई ट्वीट बीजेपी के खिलाफ किये थे। इससे 5 राज्यों में हारने वाली बीजेपी के ऊपर दबाव बढ़ता जा रहा था। इस रणनीति से लोजपा को 6 सीटें और 1 राज्यसभा सीट दिलाने में मददगार हुई। उसी राज्य सभा सीट के लिए अब बिहार में पर्चा दाखिला कार्यक्रम चल रहा है।

बिहार में एक बार फिर गठबंधनों के बीच मुकाबला

बिहार की राजनीतिक परिस्थितियां पिछले बार के मुकाबले बिलकुल अलग थी। पिछला लोकसभा चुनाव आरजेडी और जेडीयू, बीजेपी और कांग्रेस सभी अलग अलग लड़े थे। बीजेपी ने वहां के क्षेत्रीय दलों रालोसपा, एलजीपी और जीतन राम मांझी के नेतृत्व वाली हिन्दुस्तानी आवामी मोर्चे के साथ मिलकर लड़ा था। इसके बाद अस्तित्व पर गहराते संकट के मद्देजर 2015 में जेडीयू और आरजेडी तथा कांग्रेस के महागठबंधन मिलकर चुनाव लड़े और बिहार विधान सभा में महागठबंधन की सरकार बनी। इस सरकार के  बनने के 20 महीने बाद फिर नितीश पाला बदलकर बीजेपी के नेतृत्व वाले एन डी ए के साथ चले गए थे। नितीश कुमार के इस कदम से उनको राजनितिक हलकों में पल्टूराम की उपाधि भी दी गई। यह वह समय था जब बीजेपी काफी मजबूत पार्टी हो चुकी थी।

महीना नवम्बर का था। देश के 5 राज्यों में हुए  विधान सभा चुनाव के नतीजे आये ही थे। विधान सभा के इन चुनावों  में बीजेपी 5-0 से हार चुकी थी। इस परिस्थिति में दूसरे क्षेत्रीय दलों को साथ रखने की मजबूरी ने बीजेपी को एक बार फिर से गठबंधन बचाओ अभियान की रणनीति पर वापस लौटना पड़ा।

कन्हैया का शोर लेकिन गिरिराज का धमाका

इस चुनाव में बिहार ही नहीं पूरे देश के सन्दर्भ में यह बात सर्वमान्य है कि बेगूसराय देश की सबसे हॉट सीट रही है। स्वरा भास्कर, जिग्नेश मेवानी, शहला राशिद के अलावा पूरे देश के मोदी विरोधी चहरे यहाँ पर कन्हैया कुमार को जिताने उतर गए थे फिर भी गिरिराज सिंह जीत गए। हालांकि ग्राउंड में ऐसी चर्चा जरूर रही कि अगर गठबंधन में सीपीआई शामिल होती तो यह सीट आसानी से कन्हैया कुमार जीत जाते। राजनीतिक हलकों में ऐसी चर्चा है कि लालू की जिद ने उन्हें शामिल नहीं किया। ऐसा अंदेशा था कि कन्हैया बिहार की राजनीति में उनके बेटे से बड़े विकल्प बनकर उभरने का डर था।
 
प्रेशर पॉलिटिक्स में अव्वल बिहार के क्षेत्रीय दल 

मोदी लहर में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी और एक के बाद अनेक चुनाव जीते थे। लेकिन बिहार में आकर बीजेपी का अश्वमेघी अभियान रुक गया। 2015 विधान सभा चुनावमें बिहार की राजनीति के नार्थ और साउथ पोल माने जाने वाले आरजेडी और जेडीयू इक्कट्ठे हो गए और बीजेपी के खिलाफ चुनावी जीत हासिल की। इस बार भी लोकसभा चुनाव से पूर्व बीजेपी घटक दलों को दरकिनार करके अकेले आगे बढ़ रही थी लेकिन नवम्बर में हुए देश के 5 राज्यों में हुए विधान बिहार में हार के बाद  उसे गठबंधन करने पर मजबूर होना पड़ा था। प्रेशर की राजनीति में क्षेत्रीय दल हावी रहे और बीजेपी को अपनी 5 जीती हुई सीटें भी छोड़नी पड़ी।

शत्रु और कीर्ति ने की देरी

बीजेपी में रहकर पार्टी की नीतियों पर सवाल उठाने वाले नेताओं शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आजाद ने कांग्रेस ज्वॉइन करने में देर कर दी। शत्रु के आरजेडी और कांग्रेस में जाने के कयास लगाये जाते रहे। कम समय में ये अपनी सीटों पर भी अच्छे से नहीं काम कर पाए। तेजस्वी, राहुल, तेजप्रताप, शरद यादव, मांझी, और निषाद पार्टी के नेता एक मंच पर तो दिखे लेकिन इनको जमीन से जोड़ने के लिए कोई कार्य नहीं किया जा सका। कीर्ति आजाद को उनकी अपनी सीट से दरभंगा सीट से हटाकर झारखंड के धनबाद भेजा गया। यह ठीक वैसे ही था जैसे नाना पटोले को उनके अपने सीट से हटाकर नितिन गडकरी के खिलाफ नागपुर से चुनाव लड़ाया गया।

लालू के न होने से आरजेडी बैकफुट पर

लालू के चुनाव के समय पर न रहने की वजह से राबड़ी देवी को दोनों बच्चों को जोड़कर रखने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ी। तेज प्रताप ने कई सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार कर आर जे डी के पक्ष में बन रहे माहौल को खराब कर दिया। यह यूपी के शिवपाल और हरियाणा के जे जे पी के जैसा था। घर के नाराज लोगों के अलग होने से वोटों का जो बंटवारा हुआ उसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला।

नीतीश किंग, पासवान को हाथों में लड्डू

नीतीश बिहार के राजनीती के सबसे महत्वपूर्ण किरदार बनकर उभरे हैं। इस चुनाव में एनडीए की जीत के बाद यह बात साबित हो गई है कि नितीश कुमार के बगैर बिहार में जीत की बात सोचना बेमानी होगी। लोजपा एक ही परिवार से सर्वाधिक सांसद बनाने वली पार्टी बन गई है। एन डी ए का वंशवाद जीता तो यूपीए और अन्य बीजेपी विरोधी दलों का वंशवाद हारा है।

नहीं चला परिवारवाद

इस चुनाव में बड़े स्तर पर परिवार की राजनीति करने वाले लोगों की हार हुई है। बिहार की राजनीति में मुख्य स्थान रखने वाले लालू परिवार का खाता तक नहीं खुला। रंजीता रंजन से लेकर पप्पू यादव भी चुनाव नहीं जीत सके। उपेन्द्र, कुशवाहा मांझी सभी लोग इस चुनाव में जीत नहीं हासिल कर सके। इस हिसाब से देखें तो जातिवाद, क्षेत्रवाद और परिवारवाद की बिहार में पराजय हुई है लेकिन दूसरी तरफ एन डी ए के घटक दल लोजपा की बात करें तो एक ही परिवार के 3 सांसद (जमुई से चिराग पासवान, हाजीपुर से पशुपति पारस और समस्तीपुर से रामचंद्र पासवान ) चुने गए। यह संख्या एक परिवार के लिहाज से  देश के सन्दर्भ में सर्वाधिक है, क्योंकि एक परिवार से ज्यादा सांसदों वाली पार्टी सपा से भी इस बार मात्र मुलायम परिवार से 2 सांसद ही चुने गए हैं।

आगे क्या हैं आसार

लोकसभा चुनाव समाप्त हो गए हैं। बीजेपी के द्वारा आमंत्रित किये जाने के बाद भी जेडीयू ने सरकार में शामिल होने से मना कर दिया है। इस बात के दो निहितार्थ हैं। पहला ये कि जेडीयू  जरूरत पड़ने पर बीजेपी की आलोचना भी कर सकेगी साथ ही साथ आने वाले बिहार विधान सभा चुनाव में बड़े भाई की हैसियत की हकदार बनने के विकल्प में अग्रिम पंक्ति में होगी।

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