अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: राम मंदिर पर कौन फंसा, किसने फंसाया?

By अभय कुमार दुबे | Published: January 9, 2019 07:50 AM2019-01-09T07:50:14+5:302019-01-09T07:50:14+5:30

संघ की तरफ से की जा रही यह मांग उसकी अपनी सरकार से थी, न कि किसी गैर-भाजपा सरकार से। जब नरेंद्र मोदी ने कानूनी प्रक्रिया पूरी किए बगैर अध्यादेश लाने से इनकार किया तो स्पष्ट हो गया कि संघ परिवार अपनी ही सरकार से यह मांग मनवाने में नाकाम रहा है।

Ayodhya dispute: Is Ram Mandir a 2019 Election Strategy of the BJP | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: राम मंदिर पर कौन फंसा, किसने फंसाया?

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: राम मंदिर पर कौन फंसा, किसने फंसाया?

नए साल का सबसे दिलचस्प सवाल यह है कि राम मंदिर पर राजनीति के पेंच में कौन फंसा और किसने किसे फंसाया? यह एक जाना माना तथ्य है कि मंदिर बनाने के लिए संसद में कानून बनाने का पहला सार्वजनिक आग्रह स्वयं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया था। इसके बाद संघ के सरकार्यवाह ने यही बात और भी स्पष्टता से अपने भाषण में कही। उन्होंने तो राम मंदिर बनवाने का कार्यभार सरकार के सामने ही रख दिया। रामलीला मैदान में संत सभा आयोजित की गई जिसमें भाजपा के कई सांसद भागीदारी करते देखे गए। पूरे देश में संघ परिवार ने तरह-तरह से विभिन्न मंचों से यह मांग करनी शुरू की, और एकबारगी ऐसा लगा कि अब मोदी सरकार शरदकालीन सत्र में या तो विधेयक रखेगी या सरकार अध्यादेश लाएगी। भागवत के नजदीक समङो जाने वाले राज्यसभा के एक सांसद ने चेतावनी सी देते हुए दावा किया कि वे राम मंदिर पर सांसद की निजी हैसियत से विधेयक पेश कर देंगे। मीडिया में अंदाजा लगाया जाने लगा कि संघ वाले कहीं किसी कोने में कानूनी विशेषज्ञों से यह विधेयक लिखवा रहे होंगे। 

संघ की तरफ से की जा रही यह मांग उसकी अपनी सरकार से थी, न कि किसी गैर-भाजपा सरकार से। जब नरेंद्र मोदी ने कानूनी प्रक्रिया पूरी किए बगैर अध्यादेश लाने से इनकार किया तो स्पष्ट हो गया कि संघ परिवार अपनी ही सरकार से यह मांग मनवाने में नाकाम रहा है। देखते ही देखते गेरुआ वस्त्रधारी साधु और कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी कार्यकर्ता तिरछी जुबान बोलने लगे। यह तक कहा जाने लगा कि भाजपा को 2019 में अब बहुत परेशानी होने वाली है। ऐसा पिछले साढ़े चार साल में पहली बार हुआ।

सरकार और संघ परिवार की अंदरूनी जानकारी रखने वाले मानते हैं कि मोदी कभी भी राम मंदिर पर कानूनी रास्ता अपनाने के पक्ष में नहीं थे। संघ परिवार ने अगर यह मांग साल-डेढ़ साल पहले उठाई होती, तो शायद इसे मानने के बारे में सरकार कुछ सोचती भी। लेकिन सरकार का कार्यकाल खत्म होने के ठीक पहले इस तरह की मांग उठाए जाने ने मोदी को सांसत में फंसा दिया। अगर मोदी और भाजपा इसके प्रति गंभीर होते तो तीन हिंदी राज्यों के चुनावों में इस मांग को चुनावी गोलबंदी के लिए इस्तेमाल करके अंदाजा लगाया जा सकता था कि इसके राजनीतिक परिणाम क्या हो सकते हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं किया गया। तीन विधानसभाओं के चुनाव पूरी तरह से सरकारों की उपलब्धियों के आधार पर लड़े गए। ऐसा लगता है कि भाजपा और मोदी की समग्र रणनीतिक ऊर्जा विपक्ष के आक्रमणों से निबटने के बजाय संघ परिवार की इस मांग और बनाए जा रहे दबाव से निबटने में खर्च होती रही। अब देखना यह है कि क्या संघ परिवार इस मांग को किसी न किसी रूप में उठाता रहेगा, या कुशलतापूर्वक थोड़ी बहुत आपत्तियों के बाद इसे ठंडे बस्ते में डालने का सिलसिला शुरू कर देगा। 

पहली नजर में मोदी की सोच यह लगती है कि 2019 की लड़ाई पांच साल के दौरान किए गए कामों पर ही लड़नी चाहिए, न कि राम मंदिर की मांग पर। जैसे ही राम मंदिर की मांग केंद्र में आएगी, वैसे ही पिछले पांच साल की मोदी की राजनीति सिफर में बदल जाएगी। मोदी के लिए इसका पहला दुष्परिणाम यह होगा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ बिखर जाएगा। नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, ओम प्रकाश राजभर और अनुप्रिया पटेल जैसे गैर-सांप्रदायिक नेता मोदी का साथ छोड़ देंगे। उस सूरत में मोदी को केवल शिवसेना और अकाली दल के साथ चुनाव लड़ना होगा। जाहिर है कि जैसे ही ये नेता मोदी का साथ छोड़ेंगे, वैसे ही निचले ओबीसी और निचले दलित समुदायों की जो लाभकारी खिचड़ी 2014 और 2017 में भाजपा ने पकाई थी, वह अपना स्वाद खो देगी। हो सकता है कि ये शक्तियां गैर-भाजपा विपक्ष के साथ खड़ी हो जाएं। 

दूसरा दुष्परिणाम यह हो सकता है कि मोदी द्वारा घोषित और कार्यान्वित योजनाएं राजनीति की पृष्ठभूमि में चली जाएं। विपक्ष उस स्थिति में आरोप लगाएगा कि मोदी को अपने विकास कार्यो के आधार पर चुनाव जीतने का भरोसा अगर होता तो वे राम मंदिर के आधार पर चुनावी गोलबंदी के लिए राजी नहीं होते। एक तरह से तब नरेंद्र मोदी की शख्सियत पूरी तरह से संघ परिवार द्वारा लाए गए हिंदुत्ववादी उफान में डूब जाएगी। यानी 2019 में भाजपा को मिलने वाले वोटों के वाहक मोदी न हो कर संघ परिवार होगा। इस तरह हिंदुत्व की राजनीति के केंद्र से मोदी का व्यक्तित्व विस्थापित हो जाएगा। 2014 का चुनाव जीतने के बाद मोदी अपनी वोटखींचू क्षमता के कारण संघ परिवार पर हावी होते लग रहे थे। राम मंदिर के लिए कानूनी रास्ता अपनाने का दबाव डाल संघ परिवार यह बाजी अपनी तरफ झुकाने की कोशिश करते हुए लगता है। 

मीडिया मंचों पर बैठे हुए संघ परिवार के पैरोकार पूरी कोशिश कर रहे हैं कि राम मंदिर पर संघ परिवार का यह आत्मसंघर्ष सामने न आने पाए। इसलिए तरह-तरह से स्पिन डॉक्टरी की जा रही है। यह भी कहा जा रहा है कि शायद सरकार को भीतर ही भीतर ‘यकीन’ है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला वक्त पर आ जाएगा और वह अपनी कट्टरपंथी कार्यकर्ता पंक्ति की निगाह में एक बार फिर हीरो बन जाएगी। जो भी हो, देखना यह है कि मोदी और भागवत की यह रणनीतिक टक्कर क्या गुल खिलाएगी।

Web Title: Ayodhya dispute: Is Ram Mandir a 2019 Election Strategy of the BJP

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