अवधेश कुमार का ब्लॉग: चुनाव से धनबल एवं बाहुबल का प्रभाव खत्म करने का सवाल

By अवधेश कुमार | Published: February 9, 2020 03:39 PM2020-02-09T15:39:28+5:302020-02-09T15:39:28+5:30

यह बात सही है कि भारत के चुनावों में बाहुबल एवं धनबल का प्रभाव रहा है. 1980-90 के दशक के चुनाव बाहुबलियों एवं धनबलियों के प्रभाव से इतने डरावने हो गए थे कि सज्जन लोग चुनाव लड़ने तक से डरने लगे थे. हालांकि आज का सच वह नहीं है. 1993 के बाद से चुनाव आयोग की सक्रियता ने भारतीय चुनावों का वर्णक्रम बदलने में काफी हद तक सफलता पाई है.

Awadhesh Kumar blog: question of ending influence of money power and muscle power from elections | अवधेश कुमार का ब्लॉग: चुनाव से धनबल एवं बाहुबल का प्रभाव खत्म करने का सवाल

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

जब भी चुनाव आते हैं देश का विवेकशील वर्ग इस पर हमेशा बहस करता है कि किस पार्टी ने कितने दागी यानी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तथा धनबल से परिपूर्ण उम्मीदवारों को टिकट दिया. आम प्रतिक्रि या यही होती है कि भारतीय चुनाव प्रणाली के साथ बाहुबल और धनबल दो शब्द ऐसे जुड़ गए हैं जो चाहते हुए भी पिंड छोड़ने के लिए तैयार नहीं.

दिल्ली विधानसभा चुनाव को देख लीजिए. विधानसभा चुनाव में 672 उम्मीदवार हैं जिनमें से 133 उम्मीदवारों (20 प्रतिशत) पर आपराधिक मामले चल रहे हैं जबकि 2015 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 114 (17 प्रतिशत) उम्मीदवार थे. ऐसे उम्मीदवारों की संख्या तीन प्रतिशत बढ़ने का अर्थ क्या है? ध्यान रखिए, इनमें से 104 ऐसे हैं जिन पर हत्या, अपहरण, बलात्कार और महिलाओं के ऊपर अत्याचार जैसे मामले दर्ज हैं.

32 उम्मीदवारों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध और चार पर हत्या की कोशिश के मामले चल रहे हैं. 20 उम्मीदवार दोषी भी साबित हो चुके हैं. इसमें सभी पार्टियां शामिल हैं. संपत्ति के आधार पर विचार करें तो 243 उम्मीदवार यानी 36 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं. जबकि 2015 में 230 यानी 34 प्रतिशत करोड़पति उम्मीदवार थे. प्रति उम्मीदवार औसत संपत्ति 4.34 करोड़ रु पए है जबकि पिछले चुनाव में ये 3.32 करोड़ रु पए थी.

सामान्य तौर पर निष्कर्ष यह आता है कि जब राजधानी दिल्ली जैसे प्रदेश में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले इतने उम्मीदवार हैं तो अन्य प्रदेशों में ऐसा होना असामान्य नहीं हो सकता. वर्ष 2008 में 14 प्रतिशत को आधार बनाएं तो इनमें छह प्रतिशत की बढ़ोत्तरी निस्संदेह चिंताजनक है. चूंकि उम्मीदवार स्वयं अपने बारे में जानकारी देते हैं इसलिए इसे कोई नकार भी नहीं सकता. किंतु प्रश्न है कि क्या वाकई इन सारे उम्मीदवाराें को या इनमें से जो जीतकर विधानसभा में पहुंचेंगे या पहले से संसद या राज्य विधायिकाओं में ऐसे मुकदमों वाले प्रतिनिधि पहुंचते रहे हैं उन सबको अपराधी मान लिया जाए?

यह बात सही है कि भारत के चुनावों में बाहुबल एवं धनबल का प्रभाव रहा है. 1980-90 के दशक के चुनाव बाहुबलियों एवं धनबलियों के प्रभाव से इतने डरावने हो गए थे कि सज्जन लोग चुनाव लड़ने तक से डरने लगे थे. हालांकि आज का सच वह नहीं है. 1993 के बाद से चुनाव आयोग की सक्रियता ने भारतीय चुनावों का वर्णक्रम बदलने में काफी हद तक सफलता पाई है. एक समय ऐसा था जब 1996 में स्वयं चुनाव आयोग ने अध्ययन कराया कि पूरे देश में कितने विधायक एवं सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं. आज चुनाव आयोग को इसकी जरूरत नहीं, क्योंकि शपथ पत्न अनिवार्य किए जाने के बाद उसके पास सारी जानकारियां हैं.

चुनाव सुधारों की एक लंबी श्रृंखला के कारण इस पर रोक लगी है. जुलाई 2013 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया कि जिसे भी दो वर्ष या उससे ज्यादा की सजा हो गई वह सजा काटने के अगले छह वर्ष तक चुनाव नहीं लड़ सकता. आप जेल गए और सदस्यता खत्म. हालांकि चुनाव आयोग ने काफी पहले सरकार को प्रस्ताव दिया था कि यदि जघन्य अपराध के आरोपों में किसी के खिलाफ आरोप पत्न दायर हो जाए जिसमें पांच वर्ष सजा का प्रावधान हो तो उसके चुनाव लड़ने पर रोक के लिए कानून बनाया जाए.

यहां खतरा यह है कि जो भी वाकई राजनीति करेगा उसे जनता की समस्याओं को लेकर विरोध प्रदर्शन आंदोलन आदि करना ही होगा. उसमें उसके खिलाफ अनेक प्रकार के आपराधिक मामले दायर हो सकते हैं. इसका मतलब यह नहीं कि वह अपराधी है. राजनीतिक प्रतिस्पर्धा अगर दुश्मनी में बदल गई तो फिर अनेक प्रकार के झूठे मुकदमे भी दायर होते हैं. कहने का तात्पर्य यह कि राजनेताओं पर मुकदमों को आधार बनाकर सनसनीखेज चाहे जितना भी बना दिया जाए, सच वही नहीं होता जैसी तस्वीर राजनीति की बनाई जाती है.
 

Web Title: Awadhesh Kumar blog: question of ending influence of money power and muscle power from elections

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