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Assembly Elections 2024: नुकसान भरपाई की कोशिश में जुटी भाजपा?

By Amitabh Shrivastava | Updated: September 28, 2024 11:36 IST

Assembly Elections 2024: उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने भले ही अपने मन की बात सबके सामने रखी है, लेकिन उससे पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह स्पष्ट कर चुके हैं कि विधानसभा चुनाव में अजित पवार साथ रहेंगे.

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ठळक मुद्देजैसे-जैसे नुकसान के क्षेत्र चिह्नित होते जा रहे हैं, वह उन पर मलहम लगाती जा रही है.अजित पवार के साथ छत्रपति संभाजीनगर में एक बैठक भी की.अजित पवार को साथ लेने के फैसले को रणनीतिक मानते हैं.

Assembly Elections 2024: यह किसी राजनीतिक सवाल का जवाब नहीं है कि लोकसभा चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) अजित पवार गुट के वोट परिवर्तित न होने के कारण भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को बड़ी पराजय का मुंह देखना पड़ा. इसे जैसा कहा गया कि भाजपा के ‘कोर मतदाता’ को अजित पवार के साथ गठबंधन रास नहीं आया, सच नहीं माना जा सकता है. यदि ऐसा ही था तो वर्ष 2019 में सुबह-सुबह बनी सरकार से कुछ सीख क्यों नहीं ली गई? दरअसल लोकसभा चुनाव के झटके से तीन माह बाद बहुत कुछ न सीखने के बाद भाजपा ऐन चुनाव के समय संभावित खतरों से सुरक्षा पाने के उपायों की खोज में जुट गई है. जैसे-जैसे नुकसान के क्षेत्र चिह्नित होते जा रहे हैं, वह उन पर मलहम लगाती जा रही है.

बीते गुरुवार को राज्य के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने भले ही अपने मन की बात सबके सामने रखी है, लेकिन उससे पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह स्पष्ट कर चुके हैं कि विधानसभा चुनाव में अजित पवार साथ रहेंगे. यहां तक कि उन्होंने अजित पवार के साथ छत्रपति संभाजीनगर में एक बैठक भी की. इस तथ्य के बाद वस्तुस्थिति को समझने में गलती नहीं की जा सकती है.

साथ ही फड़नवीस के बयान का अधिक अर्थ भी नहीं निकाला जा सकता है, क्योंकि वह अजित पवार को साथ लेने के फैसले को रणनीतिक मानते हैं. बावजूद इसके भाजपा का लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव प्रबंधन समिति का अध्यक्ष रावसाहब दानवे को बनाना और उसमें केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को शामिल करना कहीं न कहीं संभावित खतरे से निपटने की ही रणनीति है.

हालांकि दानवे को जालना संसदीय क्षेत्र से पराजय का मुंह देखना पड़ा था. याद रहे कि आम चुनाव में भाजपा का अति आत्मविश्वास गठबंधन में 45 सीटें जीतने का दावा करता था, जिसे बार-बार दोहराने में उसे इस बात का अंदाज नहीं हो रहा था कि उसके साथ शामिल नए-नए दल शिवसेना के शिंदे गुट और राकांपा के अजित पवार गुट से मदद मिलनी तो दूर वे अपनी खुद की लड़ाई भी संभाल नहीं पाएंगे.

बाद में चुनाव परिणामों ने राज्य के सत्ताधारी गठबंधन भाजपा, शिवसेना शिंदे गुट और राकांपा अजित पवार गुट को उनकी क्षमताओं से दो-चार करा दिया. हालांकि सभी ने चुनावी हार का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ा, लेकिन सीटें बहुत कम होना तीनों के लिए अप्रत्याशित स्थिति थी. इससे ताकत का अंदाज तो हुआ ही, आपसी मजबूरी का भी प्रत्यक्ष प्रमाण मिला.

अब पिछले कुछ दिनों से सामने आ रहे कथित चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पहले ही सत्ताधारी दलों की स्थिति अच्छी नहीं बता रहे हैं. कुछ यही खबर पार्टियों की अंदरूनी रपटों की भी है. इसके पीछे एक बड़ा कारण मतदाता की सोच और कार्यकर्ताओं की भ्रमित अवस्था है. भाजपा ने इस स्थिति से निपटने के लिए पहले संगठनात्मक रूप से अनेक परिवर्तन किए हैं.

उसके बाद क्षेत्रवार जानकारी एकत्र की जा रही है. इसी क्रम में केंद्रीय गृह मंत्री शाह ने राज्य का विस्तृत दौरा किया और हर इलाके में पार्टी के निचले क्रम तक को समय दिया. अब बात सीट बंटवारे पर आ गई है, जिसमें लोकसभा चुनाव की तरह समझौता किया जाता है तो गठबंधन के दलों की विजय क्षमता पर आशंका बनी रहेगी.

यदि अधिक दबाव बनाया जाता है तो चुनाव के बीच बगावत की प्रबल संभावना बनी रहेगी. वर्तमान में महाराष्ट्र विधानसभा में राकांपा अजित पवार गुट के 40 विधायक माने गए हैं. कुछ इतने ही शिवसेना शिंदे गुट के विधायक हैं. चुनावी आकलन में दोनों के विधायकों की संख्या बढ़ने की संभावना काफी कम मानी जा रही है.

यहां तक कि भाजपा को भी सरकार विरोधी हवा का नुकसान उठाते हुए 105 की संख्या से नीचे आना पड़ेगा. यदि यह स्थिति रहती है तो मुश्किलें कम नहीं होंगी. इसी परिस्थिति को देख चुनाव से थोड़े दिन पहले भाजपा के गलतियां सुधारने के प्रयास जोर पकड़ रहे हैं.परिस्थितियों को भांपकर केंद्रीय मंत्री शाह ने अपने महाराष्ट्र दौरे में मंच से माना है कि पार्टी में गुटबाजी है और उसे दूर करना होगा.

नेता-कार्यकर्ता के बीच संवाद के साथ चुनाव बूथ पर ध्यान केंद्रित करना होगा. यद्यपि वह यह मानते हैं कि जातिगत आंदोलन चुनावों को अधिक प्रभावित नहीं करते हैं, लेकिन राज्य के चुनाव में मराठा चेहरे के रूप में रावसाहब दानवे को आगे किया ही गया है. अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति के लिए प्रदेशाध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले का चेहरा है, लेकिन अधिक संतुलन के लिए विधायक पंकजा मुंडे को भी प्रधानता दी जा रही है. केंद्रीय मंत्री गडकरी की राज्य में भूमिका बढ़ाकर उनके अनुभव तथा राजनीतिक संबंधों का लाभ लेने का प्रयास किया जा रहा है.

इसके अतिरिक्त गठबंधन में घटकों से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए उपमुख्यमंत्री फड़नवीस ने स्वयं मोर्चा संभाला है. मूलत: तीन दलों के तालमेल का मुख्य सूत्रधार उन्हें ही माना जाता है, जिससे साथियों की समीक्षा अधिकारपूर्वक कर सकते हैं. स्पष्ट है कि वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा ने दो बार सरकार बनाकर अपने चढ़ते राजनीतिक ग्राफ से समझौता किया.

उस समय वह भगवा गठबंधन में सर्वोच्च स्थान पर थी. यहां तक कि मूल शिवसेना को भी उसकी प्रगति से कोई आपत्ति नहीं, लेकिन सबक सिखाने की इच्छा और सत्ता की लालसा ने उसे इतना समझौतावादी बना दिया है कि उसका मूल मतदाता भी सोचने पर मजबूर हो चला है. लोकसभा चुनाव में कट्टर हिंदुत्व के नाम पर मत मांगने का परिणाम कुछ नहीं मिला.

यहां तक कि विकास के गुणगान पर सरकार की राजनीतिक कमजोरियां हावी हो गईं. अब विधानसभा चुनाव के पहले कुछ लाड़ली बहन, भाऊ और किसानों के लिए योजनाएं तैयार की गईं. फिर भी चिंताएं अपनी जगह हैं. इसलिए नुकसान भरपाई से रास्ता निकालने के प्रयास आरंभ हैं.

मगर पानी बहुत बह चुका है. वर्ष 2014 की स्थिति में आना तो मुश्किल है, वर्ष 2019 के परिणामों को पाने में भी अजित पवार का होना या न होना अधिक सहायता नहीं कर पाएगा. वैसे भाजपा को मालूम है कि चाल, चरित्र और चेहरा बनने में बहुत समय लगता है और अभी समय कम है.  

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