अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग: प्रवासी श्रमिकों की पीड़ा और भारतीय रेल

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: May 23, 2020 07:09 AM2020-05-23T07:09:41+5:302020-05-23T07:09:41+5:30

भारतीय रेल के पास 13 हजार से अधिक ट्रेनें हैं, जो रोज ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर मुसाफिरों को ढोती हैं. रोज धरती से चांद जितनी दूरी साढ़े आठ बार तय करने वाली भारतीय रेल अगर 20 दिन में 2015 से अधिक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की मदद से 30 लाख से अधिक श्रमिकों को ही गंतव्य तक पहुंचा सकी तो आलोचना स्वाभाविक ही है.

Arvind Kumar Singh blog: Suffering Migrant workers and Indian Railways | अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग: प्रवासी श्रमिकों की पीड़ा और भारतीय रेल

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

देश के भीतर श्रमिकों के पलायन की गति रेलवे के विकास के साथ ही तेज हुई थी. उसके पहले तो भारत केवल गांवों का देश था. रेलों ने देहाती दुनिया में हलचल मचाई और अनगिनत लोगों को प्रमुख व्यापारिक केंद्रों तक पहुंचाया. उनके लिए रेलवे ही सबसे सस्ता और भरोसेमंद सहारा थी और आज भी है. इसी नाते लॉकडाउन के बाद मजदूरों ने सबसे अधिक दबाव ट्रेनों को चलाने के लिए बनाया था. वैसे तो ट्रेन चलाना भारत सरकार के अधिकार में है, लेकिन इस क्रम में तीन साझेदार होने के नाते इतनी दिक्कतें आईं कि रेलवे के पास अपार क्षमता होने के बाद भी तमाम इलाकों में श्रमिक पैदल, ट्रकों या दूसरे असुरक्षित साधनों से घर की ओर निकल पड़े. उनकी पीड़ा की कहानियां रोज सामने आ रही हैं. कई ने घर की राह में दम तोड़ दिया.

अगर रेलवे और राज्य सरकारों ने मिल कर ठोस रणनीति बनाई होती तो प्रवासी श्रमिकों को केवल एक सप्ताह में अपने ठिकानों तक भेजा जाना संभव था. भारतीय रेल के पास 13 हजार से अधिक ट्रेनें हैं, जो रोज ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर मुसाफिरों को ढोती हैं. रोज धरती से चांद जितनी दूरी साढ़े आठ बार तय करने वाली भारतीय रेल अगर 20 दिन में 2015 से अधिक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की मदद से 30 लाख से अधिक श्रमिकों को ही गंतव्य तक पहुंचा सकी तो आलोचना स्वाभाविक ही है.

1 मई से 19 मई के दौरान सबसे अधिक 205 ट्रेनें 19 मई को चलीं जिससे ढाई लाख प्रवासी श्रमिकों को भेजा गया. 1 मई, 2020 को महज चार ट्रेनों और पांच हजार मुसाफिरों से अपनी शुरुआत के बाद भारतीय रेलवे एक पखवाड़े में केवल एक हजार ट्रेनों को चला कर 12 लाख से अधिक लोगों को ढो सकी. 14 मई को 145 ट्रेनों को चलाया गया जिससे पहली बार 2.10 लाख से अधिक यात्रियों को ढोया जा सका. इन आंकड़ों में भी अकेले प्रवासी श्रमिक ही नहीं, फंसे हुए अन्य लोग और छात्र भी शामिल हैं.

लॉकडाउन के करीब दो महीने के बाद भी श्रमिकों को गंतव्य तक पहुंचाने में राज्य सरकारों और रेलवे की भूमिका असंतोषजनक रही. इसी कारण बड़ी संख्या में श्रमिक अपने परिवार के साथ पैदल, साइकिलों, ट्रकों और दूसरे साधनों से सड़कों पर निकल पड़े. श्रमिकों की संख्या के लिहाज से कई जगह बसें कम पड़ गईं. जिन राज्यों में प्रवासियों की संख्या बहुत अधिक है, वहां के रेलवे स्टेशनों पर प्रवासियों की भारी भीड़ उमड़ी. रेलवे ने 7 मई के बाद से ही श्रमिकों के लिए 300 ट्रेनों की तैयारी कर रोज चार लाख लोगों को ढोने का इंतजाम किया. इस क्षमता का उपयोग भी किया गया होता तो आज तस्वीर बदल चुकी होती. उनको ले जाने की गति बेहद धीमी रही.

एक तो कई राज्यों में लॉकडाउन के दौरान उनके नियोजकों और राज्य सरकारों ने जो उदासीनता दिखाई उस नाते श्रमिकों को लगा कि अब उनके पास घर वापसी के अलावा कोई विकल्प नहीं था. इससे पलायन की गति तेज हुई तो बहुत से लोग अनिश्चय की हालत में उनके साथ निकल पड़े. पहले भारत सरकार ने प्रवासी श्रमिकोेंं के लिए बसों से लाने का विकल्प रखा लेकिन बिहार जैसे राज्यों ने इसे बहुत कठिन माना क्योंकि सबसे अधिक प्रवासी श्रमिक वहीं के बाहर थे.

कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री से जब विशेष रेलगाड़ी चलाने का आग्रह किया तो केंद्रीय गृह मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों में फंसे प्रवासी श्रमिकों, छात्रों, पर्यटकों और अन्य श्रेणी के लोगों के लिए 1 मई से श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाने की मंजूरी दी, लेकिन इसमें गाड़ी चलाने की स्वीकृति राज्यों को देनी थी. वहीं समन्वय के लिए रेलवे और राज्य सरकारों ने नोडल अधिकारी बनाए लेकिन भारी भीड़ वे संभाल नहीं सके. रेलवे केवल राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित यात्रियों को ही ले जा रही थी.

23 मार्च के बाद तेलंगाना सरकार के अनुरोध पर 24 कोच वाली पहली गाड़ी 1 मई को झारखंड के 1200 मजदूरों के साथ तेलंगाना से हटिया के लिए रवाना हुई तो श्रमिकों को लगा था कि अब उनकी समस्या हल हो गई. राज्यों को इस वजह से साथ रखना जरूरी था क्योंकि उनको बड़ी मात्रा में क्वारंटाइन सेंटर, शेल्टर होम और कम्युनिटी किचन जैसी तैयारियां भी करनी थीं. राज्यों के पास आरंभिक आकलन भी नहीं था कि कितने श्रमिक आने हैं. पंजाब में यूपी, बिहार और झारखंड के करीब 10 लाख प्रवासी मजदूर फंसे थे तो बिहार ने आनाकानी के बाद 28.29 लाख लोगों का आकलन बनाया.

उधर श्रमिक एक्सप्रेस आरंभ होने के बाद से रेलवे पर दूसरी श्रेणी के मुसाफिरों का दबाव बना और 12 मई से नई दिल्ली से विभिन्न जगहों के लिए राजधानी टाइप 15 जोड़ी गाड़ियों को चलाने का फैसला हुआ, लेकिन इन महंगी ट्रेनों में श्रमिकों के जाने की हैसियत नहीं थी. बाद में केंद्रीय गृह मंत्रालय और कैबिनेट सचिव ने राज्यों को अधिक श्रमिक स्पेशल  ट्रेनें चलाने में सहयोग देने के साथ जो पहल की उससे गति थोड़ी तेज हुई. लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि एक महाबली संस्था प्रवासी श्रमिकों के मसले में वह काम नहीं कर सकी जो कर सकती थी.

Web Title: Arvind Kumar Singh blog: Suffering Migrant workers and Indian Railways

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