शस्त्र पूजा और सेना पर न हो राजनीति
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: October 12, 2019 07:14 AM2019-10-12T07:14:59+5:302019-10-12T07:14:59+5:30
हर वर्ष विजयादशमी के अवसर पर विभिन्न दलों के राजनेता रामलीला के कलाकारों का टीका-फूल माला इत्यादि से स्वागत करते हैं.
(आलोक मेहता- ब्लॉग)
कुछ दलों के नेताओं और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के एक वर्ग ने पेरिस में पहला राफेल विमान सौंपे जाने के समारोह में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा शस्त्रपूजा की संस्कृति के अनुरूप कुमकुम चावल और नारियल के साथ दो मिनट की पूजा-अर्चना करने का विरोध किया. आलोचना के साथ कार्टून इत्यादि से सोशल मीडिया में मखौल भी बनाया गया. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की आलोचना-विरोध की पूरी गुंजाइश है, लेकिन क्या यह इतना गंभीर मामला है जिससे आधुनिक भारत की छवि बिगड़ रही है? भारत की सरकार - संसद के शपथ ग्रहण के दौरान ही नहीं, पश्चिमी या अन्य देशों में भी अपने-अपने धर्म के इष्ट, ग्रंथ का नाम लेकर बड़े-बड़े नेता शपथ लेते हैं. यों लोकतंत्र में नास्तिक मान्यता रखने पर ऐसा करने की आवश्यकता नहीं होती. फिर, विपक्षी नेता शायद भूल जाते हैं कि 1985 से राजीव गांधी के कार्यकाल से मनमोहन राज तक विभिन्न देशों में होने वाले भारत महोत्सवों के दौरान भारतीय संस्कृति के अनुरूप विदेशियों को टीका लगाया जाता रहा है और भारतीय संस्कृति को लेकर लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क ही नहीं बीजिंग, मास्को, कुवैत, दुबई, अबुधाबी में भी बड़ा आकर्षण होता है.
हर वर्ष विजयादशमी के अवसर पर विभिन्न दलों के राजनेता रामलीला के कलाकारों का टीका-फूल माला इत्यादि से स्वागत करते हैं. सशस्त्र बलों में भी शस्त्र पूजा के आयोजन होते रहे हैं. निश्चित रूप से किसी पूजा-पाठ से अंधविश्वास को जोड़ना गलत कहा जा सकता है. दिलचस्प तथ्य यह है कि भारतीय सेना की हर रेजीमेंट के जोश दिलाने वाले नारों में हिंदू देवी-देवताओं के नाम हैं और सब हिंदी में लगाए जाते हैं. हर वर्ष 15 जनवरी को सेना दिवस के अवसर पर होने वाली परेड में भी इन नारों को सुना जा सकता है. रक्षा मंत्रालय और भारतीय सेना के अपने रिकार्ड के अनुसार हर रेजीमेंट के नारे अलग और कहीं समान भी हैं. बिहार रेजीमेंट- ‘जय बजरंग बली’ या ‘बिरसा मुंडा की जय’, राजपूताना राइफल्स- ‘रामचंद्रजी की जय’, राजपूताना रेजीमेंट-‘बोल बजरंग बली की जय’, कुमाऊं रेजीमेंट- ‘कालका माता की जय’, ‘बजरंग बली की जय’, ‘दादा किशन की जय,’ गढ़वाली रेजीमेंट- ‘बदरी विशाल की जय,’ डोगरा रेजीमेंट-‘ज्वाला माता की जय’ पंजाब और सिख रेजीमेंट्स - ‘बोले सो निहाल सत श्री अकाल,’ जम्मू-कश्मीर राइफल्स- ‘दुर्गामाता की जय’ के नारे लगाकर आक्रमण करते हैं. माना जाता है कि दुश्मनों के छक्के छुड़ाने और सैनिकों का मनोबल ऊंचा रखने के लिए इन नारों का उपयोग होता है. लद्दाख की दुर्गम पर्वत श्रृंखला पर सैन्य शिविरों के साथ आपको मंदिर-गुरुद्वारे मिल जाते हैं. इसी तरह इस्लाम धर्म मानने वाले समय और सुविधानुसार नमाज भी अदा करते हैं.
इस परंपरा को ध्यान में रखकर जिम्मेदार नेताओं का पारंपरिक-प्रतीकात्मक आयोजनों पर विवाद खड़ा करना कहां तक उचित कहा जाएगा? भारतीय सेना की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि उसमें कभी सांप्रदायिक अथवा राजनीतिक पूर्वाग्रहों से काम नहीं किया गया. 1962 से 1999 के बीच हुए युद्घ के दौरान हर धर्म-जाति के सैनिकों ने कंधे से कंधा मिलाकर भारत को विजयी बनाया, एक दूसरे की जान बचाने के लिए बलिदान भी दिया. संचार माध्यमों और मीडिया का विस्तार होने के साथ कुछ तत्व एवं दल सेना के मुद्दों पर राजनीति भी करने लगे हैं. सशस्त्र बलों के वेतन, पेंशन, आवश्यक सुविधाएं-संसाधन जुटाने पर संसद में स्वस्थ चर्चा होती रही है. इसी का परिणाम है कि हाल के वर्षों में वर्तमान या पूर्व सैनिकों के वेतन-भत्तों-पेंशन में बढ़ोत्तरी हुई है. इसी तरह सेना की गतिविधियों, उपलब्धियों या यदा-कदा किसी सिपाही या सेनाधिकारी की गड़बड़ी की सार्वजनिक चर्चा होने लगी है. किसी ज्यादती और अपराध या भ्रष्टाचार पर सेनाधिकारियों को दंडित भी किया गया है. दो दशक पहले रक्षा मामलों पर मीडिया में बेहद अनुशासित और नियंत्रित सूचनाएं मिलती थीें. संवेदनशील और रक्षा से जुड़े होने के आधार पर सरकारें अधिक जानकारी नहीं देती थीं.
केवल रक्षा सौदे में घोटालों पर खोजपरक रिपोर्ट, विश्लेषण होने या विवाद बढ़ने पर सरकारें महत्वपूर्ण अधिकृत जानकारियां उपलब्ध कराती थीं. कम्प्यूटर युग में आधुनिक हथियारों, विमानों, जहाजों, पनडुब्बियों का निर्माता कंपनियां मान्यता प्राप्त एजेंसियों के एजेंट द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्घ करने के लिए पूरे विवरण प्रचारित करती हैं. भारत में तो राफेल ही नहीं, प्रमुख हथियारों इत्यादि की खरीदी की प्रक्रिया इतने स्तरों पर चलती है कि खरीदी में वर्षों लग जाते हैं. यही नहीं थल, वायु, नौसेनाओं के वरिष्ठ अधिकारी और विशेषज्ञों की अनुशंसा पर ही कोई खरीदी होती है. इसलिए पारदर्शिता के दौर में राफेल विमानों के सौदे पर राजनीतिक विवाद के चलते यदि भारत सरकार ने फ्रांस से पहला विमान मिलने की औपचारिकता को धूमधाम से प्रचारित किया तो उसका स्वागत क्यों नहीं होना चाहिए? लोकतंत्र में रक्षा और अंतर्राष्टÑीय मामलों पर जनता को अधिकाधिक पारदर्शिता के साथ सूचनाएं मिलनी चाहिए और सेना तथा रक्षा से जुड़े मुद्दों को संकीर्ण राजनीति से प्रभावित नहीं करना चाहिए