अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः गोरे रंग के प्रति भारतीय प्रेम का मतलब

By अभय कुमार दुबे | Updated: July 8, 2020 12:52 IST2020-07-08T12:52:02+5:302020-07-08T12:52:02+5:30

संस्कृत के विद्वान और दुनिया के प्रमुख भाषाशास्त्रियों में से एक माधव देशपांडे ने पतंजलि के महाभाष्य  के हवाले से बताया है कि प्राचीनकाल में आम तौर पर ब्राह्मणों का रंग गोरा समझा जाता था. कहा जाता था कि वे कृष्ण वर्ण के नहीं हो सकते.

anti racism movement in western world has sparked debate on this question in India | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः गोरे रंग के प्रति भारतीय प्रेम का मतलब

पश्चिमी दुनिया में चल रहे नस्लवाद विरोधी आंदोलन ने भारत में इस प्रश्न पर बहस छेड़ दी है. (फाइल फोटो)

पश्चिमी दुनिया में चल रहे नस्लवाद विरोधी आंदोलन ने भारत में इस प्रश्न पर बहस छेड़ दी है. कहा जा रहा है कि जो लोग गोरे रंग के नहीं होते, भारत में उनके साथ भेदभाव होता है. जहां तक गोरे रंग को मिलने वाली प्राथमिकता का सवाल है, भारतीय मानस की इस सच्चई से इंकार नहीं किया जा सकता. अगर गोरे रंग की क्रीम का हजारों करोड़ रुपए का व्यापार देखा जाए, तो यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि भारत में हर दूल्हे को गोरी दुल्हन क्यों चाहिए होती है. इसी तरह हर हीरोइन को मेकअपमैन लीप-पोत कर गोरा बना देता है. हर टीवी एंकर स्त्री स्क्रीन पर अनिवार्य रूप से गोरी ही दिखती है. 

जाहिर है कि समाज की सोच में रंग को लेकर एक ऐसी समस्या है जिसे मनोग्रंथि की संज्ञा भी दी जा सकती है. लेकिन क्या यह समस्या नस्लवाद है, वैसा ही नस्लवाद जैसा पश्चिमी समाजों में व्याप्त है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह हम पश्चिमी समाज की खूबियों को अपने समाज में देखना चाहते हैं, उसी तरह हम उस समाज की बुराइयों को भी अपने समाज में देखने की कोशिश करने लगते हैं?

इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए जरूरी है कि हम पहले यह पता लगाएं कि क्या भारतीय चिंतन में पारंपरिक ढंग से गोरे रंग को चमड़ी के दूसरे रंग पर प्राथमिकता दी गई है, और अगर दी गई है तो उस प्राथमिकता का किरदार क्या है? सबसे पहली बात तो यह तय करने की है कि क्या वर्णाश्रम धर्म में संस्कृत का वर्ण शब्द चमड़ी के रंग के लिए इस्तेमाल किया गया है. विद्वानों का मानना है कि वर्ण का अर्थग्रहण वर्ग, जनजाति, गण और जाति के रूप में किया गया है. 

ऋग्वेद में भी जहां आर्यों और दस्युओं के बीच अंतर किया गया है, वहीं त्वचा के रंग का मानक इस्तेमाल नहीं किया गया है. तो क्या भारतवासियों के बीच समझ के स्तर पर त्वचा के रंगों के बीच अंतर का अभाव था? अगर वे कोई अंतर करते भी थे तो क्या उसके साथ कोई मूल्य-प्रणाली या पूर्वाग्रह जुड़ा हुआ था? और, क्या यह मूल्यवर्धन नस्ली संरचना का कोई इशारा करता है?

संस्कृत के विद्वान और दुनिया के प्रमुख भाषाशास्त्रियों में से एक माधव देशपांडे ने पतंजलि के महाभाष्य  के हवाले से बताया है कि प्राचीनकाल में आम तौर पर ब्राह्मणों का रंग गोरा समझा जाता था. कहा जाता था कि वे कृष्ण वर्ण के नहीं हो सकते. देशपांडे ने नौवीं सदी के सौंदर्यशास्त्री राजशेखर की कृति काव्यमीमांसा के जरिये भारत में त्वचा के रंगों के भूगोल की जानकारी भी दी है. 

इसके मुताबिक उत्तर भारत गोरे, पूर्वी भारत सांवले, दक्षिण भारत अधिक गहरे रंग और पश्चिमी भारत पीलापन लिए हुए गोरे रंग के लिए जाना जाता है. इस भूगोल में मध्य देश के लोगों की त्वचा गौर, श्याम और कृष्ण रंगों का मिश्रण बताई गई है. अत्यंत प्राचीन वशिष्ठ धर्मसूत्र जानकारी देता है कि परिवार में गोरे रंग की बहू लाने का आग्रह बहुत पुराना है. यानी, कहीं न कहीं बहुरंगी भारतीय समाज में गोरे रंग के मूल्यवर्धन की प्रकृति शुरू से ही विद्यमान थी.

लेकिन क्या इससे यह साबित होता है कि भारतीय समाज में रंग आधारित अलगाव, अवसरों की असमानता और परस्पर घृणा की संरचनाएं थीं? क्या भारत में रंग और रूप को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था? यानी गोरा रंग सुंदरता और काला रंग कुरूपता का पर्याय था? क्या विष्णु के दोनों प्रमुख अवतारों (राम और कृष्ण) और अन्य कई पूजनीय देवी-देवताओं का श्याम वर्ण त्वचा के रंग से जुड़ी प्राथमिकताओं के बारे में कुछ नहीं कहता? क्या कालिदास के मेघदूत की यक्षिणी ‘तन्वंगी श्यामा’ नहीं है? क्या महाभारत की द्रौपदी अपने सांवले रंग और सुंदरता के लिए नहीं सराही जाती? 

दरअसल, त्वचा के विविध रंगों से संपन्न एक बेहद विशाल समाज की संस्कृति-बहुल संरचना में रंग और दैहिकता के जन्मना मानकों के आधार पर कुछ पूर्वाग्रहों का होना स्वाभाविक ही है, लेकिन उन पूर्वाग्रहों को दो या तीन विशालकाय नस्ली समुदायों के आपसी टकराव की तरह नहीं देखा जा सकता. व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो यह स्थिति और साफ हो जाती है. हर परिवार में (कुछेक अपवादों को छोड़ कर) त्वचा के तरह-तरह के रंग देखे जा सकते हैं. ऐसे देश में त्वचा के रंग पर आधारित नस्लवाद असंभव है. इस समाज में गोरे रंग की ऐसी अनगिनत स्त्रियां हैं जिन्होंने सांवले रंग के पुरुषों को अपने प्रेम का पात्र बनाया. इसी तरह न जाने कितने गोरे पुरुष हैं जो कि सांवली स्त्रियों से प्रेम करके विवाहित हुए.

मुझे लगता है कि भारतीय मानस बहुत ज्यादा गोरे रंग पर मोहित होने के बजाय उससे चौंकता है. विश्व सुंदरी युक्ता मुखी और टीवी अभिनेत्री सौम्या टंडन की आपबीती बताती है कि उन्हें उनके बहुत ज्यादा गोरे रंग से शुरू से ही परेशानियों का सामना करना पड़ा. युक्ता मुखी बताती हैं कि बचपन में स्कूल में वे और उनका भाई बहुत गोरे रंग के कारण अपनी कक्षा मेंं अकेले पड़ जाते थे. हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब भारतवासियों ने अंग्रेजों को पहली बार देखा तो उन्हें फिरंगी कहा, यानी फिरंग रोग का शिकार व्यक्ति. कोई भी भारतीय नहीं चाहता कि उसका रंग फिरंगियों जैसा हो जाए.

Web Title: anti racism movement in western world has sparked debate on this question in India

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