अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: जुबानी ‘अस्त्र’ के सहारे महाराष्ट्र की सेनाएं!

By अमिताभ श्रीवास्तव | Published: November 21, 2019 07:22 AM2019-11-21T07:22:55+5:302019-11-21T15:48:51+5:30

शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे की सभाओं में रिकॉर्ड भीड़ का जुटना हमेशा ही चर्चा का विषय रहा. उनके बाद यही बात कुछ हद तक उद्धव ठाकरे के साथ भी दिखी. उनकी सभाओं में भले ही संगठित तौर पर भीड़ इकट्ठा हुई हो, लेकिन सुनने वालों की संख्या अच्छी दिखाई दी. इसी मामले में शिवसेना से अलग हुए बालासाहब के भतीजे राज ठाकरे भी कम नहीं रहे. 

Amitabh Srivastava's blog: Maharashtra's armies with the help of Jubani 'Astra'! | अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: जुबानी ‘अस्त्र’ के सहारे महाराष्ट्र की सेनाएं!

अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: जुबानी ‘अस्त्र’ के सहारे महाराष्ट्र की सेनाएं!

पिछले माह चुनाव परिणाम आने के बाद से महाराष्ट्र की सबसे बड़ी ‘सेना’ शिवसेना ‘फुल फार्म’ में नजर आ रही है. वह किसी भी मोर्चे पर खुद को किसी से कम मानने को तैयार नहीं है. थोड़े दिन पहले विधानसभा चुनाव के दरमियान राज्य की एक और ‘सेना’ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का भी यही हाल था. वह सत्ता की जंग में सीना चौड़ा कर विपक्ष के रूप में पिछली सीट पर बैठने के लिए ही सारा जोर लगा रही थी. चुनाव परिणामों के सामने आने के बाद से शिवसेना के खाते में 56 सीटें हैं और मनसे के पास एक ही सीट है. जनमत के आधार पर साफ है कि महाराष्ट्र का नेतृत्व करने का दावा करने वाली सेनाओं की स्थिति क्या है.

महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का उदय चाहे काफी साल पुराना न रहा हो, लेकिन उसने मराठी समाज और संस्कृति का पैरोकार बन कर हमेशा ही कुछ इस तरह अपनी पहचान बनाई है कि उसका दावा राज्य पर बना रहा. यहां तक कि भावनात्मक मुद्दों में भी मराठी जनता का मन जीतने में उसने कोई कमी नहीं छोड़ी. साफ है इसका असर उसके आयोजनों में हमेशा ही दिखा. 

शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे की सभाओं में रिकॉर्ड भीड़ का जुटना हमेशा ही चर्चा का विषय रहा. उनके बाद यही बात कुछ हद तक उद्धव ठाकरे के साथ भी दिखी. उनकी सभाओं में भले ही संगठित तौर पर भीड़ इकट्ठा हुई हो, लेकिन सुनने वालों की संख्या अच्छी दिखाई दी. इसी मामले में शिवसेना से अलग हुए बालासाहब के भतीजे राज ठाकरे भी कम नहीं रहे. 

उनकी पार्टी अलग भले ही थी, मगर उसका अंदाज कोई जुदा नहीं था. वह भी पुराने लटके-झटकों पर चलते हुए भीड़ जुटाने में कमजोर साबित नहीं हुए. आंदोलन हो या फिर समर्थन अथवा कोई मुहिम, दोनों ही सेनाओं ने अपनी क्षमता और प्रतिभा को कभी कम नहीं होने दिया. किंतु इसका जब राजनीति में उपयोग का वक्त आया तो राज्य की सेनाएं सबसे पीछे दिखाई दीं. भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र आदि के सभी समीकरणों को आत्मसात करने वाली सेनाएं अपने समर्थकों के मत को स्वीकार करने में कोई ठोस भूमिका अदा नहीं कर पाईं.

शिवसेना का इतिहास

इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो शिवसेना को करीब 50 साल से  चुनावी राजनीति में देखा गया है. किंतु उसने कभी किसी की ‘बी’ टीम बनने में भरोसा नहीं किया. पहली बार उसने वर्ष 1972 में विधानसभा चुनाव लड़ा और मुंबई के गिरगांव से प्रमोद नवलकर के रूप में पहली जीत दर्ज की. उसके बाद वर्ष 1978 में चुनाव लड़ा, मगर विजय नहीं मिली. किंतु वर्ष 1980 और 1985 को छोड़ जब शिवसेना ने पूरी ताकत से वर्ष 1990 में विधानसभा चुनाव लड़ा तो 52 सीटें जीतीं. 

उसके बाद वर्ष 1995 में 73, वर्ष 1999 में 69, वर्ष 2004 में 62, वर्ष 2009 में 44, वर्ष 2014 में 63 सीटें जीतने के बाद अपना प्रदर्शन 2009 को छोड़ कमोबेश एक समान ही रखा, लेकिन चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के अलावा किसी अन्य बड़े दल से समझौते में भरोसा नहीं दिखाया. हालांकि मतों का अंतर 16.39 प्रतिशत से अधिकतम 19.97 प्रतिशत के बीच ही रहा. 

ताजा चुनाव में शिवसेना 16.4 प्रतिशत मतों पर आ पहुंची है. मगर पार्टी के इस नौवें विधानसभा चुनाव के बाद तेवर अत्यधिक आक्रामक हैं. वह किसी भी समझौते के साथ सत्ता की बागडोर संभालने के लिए तैयार है. पार्टी के एक वर्ग को यह नीति ‘करो या मरो’ जैसी भी लगती है, फिर भी कोई झुकने के  लिए  तैयार नहीं है.

पसोपेश की बीच शिवसेना सत्ता की डोर हाथ में लेने की हर संभव कोशिश में है. मगर वह यह समझने और समझाने के लिए तैयार नहीं है कि आखिर उसकी नई ताकत या नई मजबूरी की वजह क्या है? वह मराठी मानुस की सालोंसाल से पैरवी करने के बाद भी यह आत्मविश्लेषण के लिए तैयार नहीं है कि क्यों वह राज्य में सौ सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाई. उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 73 सीटों का 24 साल पहले था. इस बार सत्ता के साथ भी उसे 56 सीटों पर ही रुकना पड़ा. 

सच्चाई से मुंह मोड़कर राजनीति करना चाहते हैं दल

दरअसल राज्य की सेनाएं जमीनी सच्चाई से मुंह मोड़कर राजनीति करना चाहती हैं. जुबानी अस्त्र से चुनावी जंग जीतना चाहती हैं. मगर पिछले लगभग चालीस साल में बयानों की जंग के परिणाम सामने हैं. यदि कोई दल क्षेत्रीय अस्मिता के साथ अपना अस्तित्व तैयार करता है तो उसे सकारात्मक परिणाम मिलना सामान्य सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है. वही आगे चलकर रैली, सभा से वोटिंग मशीन तक भी पहुंचता है. 

यदि विचारों का प्रवाह मत परिवर्तन करने में असमर्थ होता है तो वैचारिक सोच का मूल्यांकन करना जरूरी होता है. शिवसेना ने एकतरफा लड़ाई लड़ी है. वह अजेय योद्धा के रूप में खुद को देखती है. मराठी जनता उसे योद्धा तो मानती है, मगर सेनापति के रूप में स्वीकार करने में संकोच करती है. शायद कहीं न कहीं उसकी मजबूरी है या महाराष्ट्र की फिजा का किसी अतिवाद को न स्वीकार करना एक कमजोरी है. 

फिलहाल जुबानी जंग से आगे बढ़कर जमीनी हकीकत को समझना और अन्य राजनीतिक दलों की तरह लचीला होना आवश्यक है. वर्ना वैचारिक अंतर्द्वंद तथा आपसी मतभेदों के बीच पार्टी के समक्ष समझौते की राजनीति के अलावा कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीं होगा और उसका दूरगामी परिणाम संगठनात्मक सोच और भविष्य पर भी होगा.

Web Title: Amitabh Srivastava's blog: Maharashtra's armies with the help of Jubani 'Astra'!

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