आलोक मेहता का ब्लॉग: क्षेत्रीयता की संकीर्ण भावना को बढ़ावा देना ठीक नहीं

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 8, 2020 12:00 PM2020-06-08T12:00:07+5:302020-06-08T12:00:07+5:30

डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान सभा में नवंबर 1949 में अपने भाषण में कहा था - ‘हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्न को एक सामाजिक प्रजातंत्न भी बनाना चाहिए. जब तक उसे सामाजिक आधार न मिले राजनीतिक प्रजातंत्न नहीं चल सकता.

Alok Mehta's blog: Promoting narrow sense of regionalism is not good | आलोक मेहता का ब्लॉग: क्षेत्रीयता की संकीर्ण भावना को बढ़ावा देना ठीक नहीं

आलोक मेहता का ब्लॉग: क्षेत्रीयता की संकीर्ण भावना को बढ़ावा देना ठीक नहीं

अंकित ने हमारे कम्प्यूटर प्रिंटर को चेक करने के बाद पूछा, ‘सर, आप कहां के हैं?’ मुङो अटपटा लगा, ‘मतलब?’ मेरे इस जवाब पर युवक संकोच से बोला, ‘मतलब दिल्ली के या यूपी, एमपी, बिहार या पंजाब के? आजकल तो सब यही पूछ रहे हैं.’ अंकित तीन-चार वर्षो से मैकेनिक के नाते हमारे पास आता रहा है. उसने कभी यह सवाल नहीं किया. मैंने उसे सामने कुर्सी पर बैठाया, ‘अंकित कैसे बताऊं. एक छोटे से गांव में जन्म हुआ. पिताजी दूसरे जिले के गांव में शिक्षक थे. फिर एक से दूसरे गांव में तबादले होते रहे. आठवीं की पढ़ाई तक चार स्कूल बदले. फिर उज्जैन पहुंचे तो वहां भी तीन स्कूल में रहा और फिर उज्जैन इंदौर में पढ़ाई पूरी की.

पत्नकारिता में इंदौर, भोपाल, दिल्ली, कोलोन (जर्मनी), पटना और फिर दिल्ली में काम करता रहा हूं. अब मेहता सरनेम पंजाब, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश में भी होता है. यहां तक कि विभिन्न इलाकों में जातियां भी अलग हो सकती हैं. इसलिए इतना ही समझ में आता है कि भैया अब कहीं का मान लो,  मैं तो हिंदुस्तानी हूं.’ इतनी लंबी दास्तां सुनकर अंकित ने हंसकर पूछा, ‘सर, वो सब ठीक है, यदि इलाज कराना पड़ा तो कहां का बता सकेंगे? केजरीवालजी ने कह दिया है  पहले साबित करो कि दिल्ली के हो.’ मैंने कहा, ‘भाई इतनी प्रार्थना करो कि इलाज और इस सवाल का जवाब देने की नौबत नहीं आए.’ उसे विदा करने के बाद भी मैं विचलित रहा, क्योंकि मेरी तरह लाखों नहीं करोड़ों लोग होंगे. जो भारत ही नहीं दुनिया भर में हैं. उनसे क्या इसी सवाल के सही उत्तर देने और प्रमाण पाने पर इलाज होगा? कोविड-19 महामारी के संकट ने भारत में क्षेत्नीय मुद्दे को गरमा दिया. ये मजदूर मेरा या तुम्हारा, ये सुविधा हमारी या

तुम्हारी- इस तरह के दावों से एक खतरनाक मानसिकता भी देश में पैदा हो रही है. डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान सभा में नवंबर 1949 में अपने भाषण में कहा था - ‘हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्न को एक सामाजिक प्रजातंत्न भी बनाना चाहिए. जब तक उसे सामाजिक आधार न मिले राजनीतिक प्रजातंत्न नहीं चल सकता. सामाजिक प्रजातंत्न का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन पद्धति है जो स्वतंत्नता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकारती है. ..बंधुत्व का अर्थ है सभी भारतीयों के बीच एक सामान्य भाईचारे का अहसास, जो हमारे सामाजिक जीवन को एकजुटता प्रदान करता है. बंधुत्व तभी स्थापित हो सकता है जब हमारा राष्ट्र एक हो.’

आजकल नेताओं को लगता है कि गांव, शहर, क्षेत्न, प्रदेश, जाति, धर्म, संप्रदाय, भाषा के नाम पर लोगों को भ्रमित कर तात्कालिक राजनीतिक हित पूरे किए जा सकते हैं. लेकिन इस फॉर्मूले से वे संविधान की भावना का अनादर करते हुए अपनी शपथ को भी झूठी साबित करते हैं. पंचायत से लेकर संसद और सरकार या प्रत्यक्ष अथवा संगठन को आगे बढ़ाने और बड़े लक्ष्य पाने के लिए एक उदार दिल तथा उदार दिमाग - सोच की जरूरत होती है.

यों सत्तर वर्षो से कहा जाता रहा, लेकिन अब अधिक जरूरी हो गया है कि कोरोना संकट से प्रभावित हुए सभी क्षेत्नों में उत्पादन में भारी वृद्धि करने, जीवन स्तर ऊंचा करने और रोजगार के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध कराने के लिए राजनीतिक क्षुद्रता से हटकर संपूर्ण भारत में एक साथ प्रयास किए जाएं, ताकि आने वाले तीन से पांच वर्षो में भारत सही अर्थो में आत्मनिर्भर कहला सके. यह उद्देश्य केवल घोषणाओं, नारों और फैसलों से पूरा नहीं हो सकता. उन पर अमल के लिए पारस्परिक सहयोग, दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है. आर्थिक नीति का लक्ष्य होना चाहिए- प्रचुरता. आज की दुनिया में अभावों के अर्थशास्त्न का कोई मायने नहीं है. उत्पादन के साथ जन सामान्य की क्रय शक्ति बढ़नी चाहिए, तभी उत्पादन और उपभोग का चक्र पूरा होगा. इसके लिए सामाजिक सद्भाव, भविष्य निर्माण की राष्ट्रीय भावना जगाए रखने का दायित्व सबका है. इस दृष्टि से भारत सबसे अधिक युवा और सशक्त है. विभिन्न क्षेत्नों में उनके पास अद्भुत क्षमता है.

सारी  समस्याओं के बावजूद पिछले वर्षो के दौरान पंचायतों में युवाओं और महिलाओं ने ग्रामीण इलाकों में महत्वपूर्ण बदलाव लाने का काम किया है. शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और सड़क के साथ उत्पादन एवं रोजगार के लिए नए अभियान चलने पर देखते ही देखते देश का कायाकल्प हो सकता है. राजनेताओं को यह समझना होगा कि जोड़तोड़ से कुछ नहीं होगा और लोगों के उत्साहपूर्ण सहयोग के साथ कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है.

Web Title: Alok Mehta's blog: Promoting narrow sense of regionalism is not good

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