आलोक मेहता का ब्लॉग: तनाव की बर्फ पिघलने के लिए जरूरी है इंतजार
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 29, 2020 10:57 AM2020-06-29T10:57:16+5:302020-06-29T10:57:16+5:30
चीन साठ के दशक में भी अपनी बादशाहत को दिमाग में रखकर दुनिया पर अपनी ताकत का वर्चस्व रखना चाहता था. आज भी कम्युनिस्ट कहलाते हुए भी उसकी रणनीति साम्राज्यवादी मानसिकता की है. इसलिए वह जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, नेपाल के साथ भारत को दबाव में रखना चाहता है. गलवान घाटी में घुसपैठ की कोशिश उसी अहंकारी इरादे से हुई, लेकिन उसे बहुत गहरा धक्का लगा है. कोविड-19 की महामारी के बाद चीन बदनाम ही नहीं हुआ, बहुत अलग-थलग पड़ गया है. रूस भी कम्युनिस्ट होते हुए उसके साथ नहीं है. आर्थिक सामरिक महाशक्ति दिखने के बावजूद उसे चुनौतियां देने वाले देश बढ़ते जा रहे हैं.
भारत के दूरदर्शी संपादक-विचारक राजेंद्र माथुर ने 1963 में ही लिख दिया था, ‘अगर ज्ञात सबूतों के आधार पर ही विचार किया जाए तो यह प्रतीत होता है कि भारत के प्रति चीन का रवैया धीरे-धीरे अधिक सख्त और बदनीयत होता गया है. तिब्बत में बगावत के बाद उसने भारत को जो चिट्ठियां लिखीं, वे इतनी जहरीली और गर्वभरी थीं कि दोस्त क्या दुश्मन देश भी एक दूसरे को नहीं लिखा करते. शायद तभी से चीन ने निर्णय कर लिया था कि वह भारत को चैन से नहीं बैठने देगा.’ वह बहुत सही साबित होते रहे हैं. 1962 से अब तक चीन की कोशिश रही है कि लद्दाख और अरुणाचल की सीमाओं पर वह खटपट-फुफकारने-घुसपैठ की कोशिशें करता रहे, ताकि जब भी बातचीत का अवसर आए, तब वह अपने पत्तों को तुरुप का पत्ता बना या दिखा सके. फिर भी भारत हमेशा धैर्य के साथ शांति, सद्भाव, कूटनीति अपनाते हुए दृढ़ता के साथ संबंध एवं टकराव से निपटता रहा. लद्दाख में इस बार उसने लंबे अर्से के बाद घातक घुसपैठ की कोशिश की, जिसे भारत की बहादुर सेना ने नाकाम करने के साथ करारा जवाब भी दे दिया. इसलिए अब चीन की ही पहल पर बातचीत का सिलसिला शुरू होने पर तत्काल परिणाम आने की अपेक्षा और दिन-रात सवाल पूछने का औचित्य नहीं है. हिमालय में बर्फ पिघलने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा अच्छी होती है.
अब भारत को लोहे से इस्पात या कुछ और बनाने के लिए आग पर लोहा पीटने एवं गर्म पानी से ठंडा करने का आधुनिक तरीका आ गया है. शरद पवार और नरेंद्र मोदी जैसे नेता कबड्डी खेल के दांवपेंच सीखते हुए सत्ता की राजनीति में सफलता से ऊंचाइयों पर पहुंचे हैं. 1993 में चीन के साथ हुए ऐतिहासिक समझौते के समय शरद पवार कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार के रक्षा मंत्नी थे. इसलिए फिलहाल भाजपा सरकार के घोर राजनीतिक विरोधी होते हुए भी उन्होंने लद्दाख में हुए सैन्य टकराव पर एक भी कटु शब्द कहने के बजाय सरकार और सेना के कदमों का समर्थन किया. यहां तक कि ममता बनर्जी तक ने बहुत परिपक्वता से भारत के कदमों का साथ दिया.
बहरहाल, इस समय तनाव के साथ सैन्य और राजनयिक स्तर पर वार्ताएं शुरू हुई हैं. ये महीने भर या उससे भी अधिक चल सकती हैं. दूसरी तरफ सीमा नियंत्रण रेखा पर यदि चीन अपनी तैनाती बढ़ाता है तो भारतीय सेना भी तो अपनी संख्या, सड़क, हथियार इत्यादि को अपने अधिकार क्षेत्र में बढ़ाकर रखती रहेगी. मूल समझौता तो इसी बात का है. ज्यादा चिंता तो चीन को है, क्योंकि हाल में लद्दाख-जम्मू कश्मीर के राजनीतिक-प्रशासनिक ढांचे में बदलाव के साथ भारत सरकार ने पाकिस्तान द्वारा कब्जाए कश्मीर और अक्साई चिन को नक्शे में अपने अधिकार का दिखा दिया है. अक्साई चिन से लगे सिंकियांग के लोप नोर में चीन का परमाणु परीक्षण केंद्र भी है. इसीलिए उसने अभी पाकिस्तान को भी सीमा पर अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने का हुक्म दिया है. पाक अधिकृत कश्मीर आज नहीं तो कल यानी आने वाले किसी भी वर्ष में भारत का होने वाला है. संभव है हम चीन की बनाई सड़कों के रास्ते बंद न करें. लेकिन यह तय है कि धैर्य और उचित समय का ध्यान रखने पर इस बार तुरुप के पत्ते भारत की सेना और सरकार के पास रहेंगे.