आलोक मेहता का ब्लॉग: राजनीति को अपराध से मुक्त करना सबकी जिम्मेदारी
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 16, 2020 11:52 AM2020-02-16T11:52:15+5:302020-02-16T11:52:15+5:30
राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों और धनपतियों का सहयोग लेते थे. धीरे-धीरे दबंगों और धनपतियों को स्वयं सत्ता में आने का मोह हो गया. अधिकांश पार्टियों को यह मजबूरी महसूस होने लगी. पराकाष्ठा यहां तक हो गई कि नरसिंह राव के सत्ता काल में एक बहुत विवादास्पद दबंग नेता को राज्यसभा में नामांकित तक कर दिया गया.
वोटर इज किंग, इलेक्टेड मैन इज सर्वेट ऑफ पब्लिक (मतदाता राजा है, चुने गए व्यक्ति सेवक हैं ) - यह आदर्श वाक्य एक बार फिर हाल ही में देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुनील अरोड़ा ने एक टीवी के सम्मेलन में कहा. लेकिन अनुभव इसके विपरीत है. सत्ता में आने वाले पहले भी असलियत नहीं बताते और कुर्सी पाने के बाद तो और भी रंग बदल देते हैं.
कसमें-वादे, अदालती फरमानों के बावजूद चुनाव सुधार की सिफारिशें कछुआ चाल से लागू हो रही हैं. अब चुनाव आयोग आगामी 18 फरवरी को कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशों पर केंद्रीय कानून मंत्नालय के साथ बैठक करने जा रहा है, ताकि जनभावनाओं और अदालती आदेशों को ध्यान में रख वर्तमान चुनाव नियमों, कानूनों में जरूरी बदलाव किए जा सकें.
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सितंबर 2018 को एक फैसले में निर्देश दिया था कि दागी उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड को प्रमुखता से सार्वजनिक करें ताकि जनता को जानकारी रहे. लेकिन नेताओं ने अब तक इसे ठीक से नहीं अपनाया. इसलिए अब कोर्ट ने फिर से निर्देश दिए हैं. इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक कार्यकर्ता पर कुछ मामले आंदोलन अथवा पूर्वाग्रह के हो सकते हैं, लेकिन अनेकानेक गंभीर मामलों में सबूतों के साथ चार्जशीट होने पर तो नेता और पार्टियों को कोई शर्म महसूस होनी चाहिए.
चुनाव आयोग ने तो बहुत पहले यही सिफारिश कांग्रेस राज के दौरान की थी कि चार्जशीट होने के बाद उम्मीदवार नहीं बन पाने का कानून बना दिया जाए. लेकिन ऐसी अनेक सिफारिशें सरकारों और संसदीय समितियों के समक्ष लटकी हुई हैं. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने भी सांसदों-मंत्रियों आदि पर विचाराधीन मामलों के लिए अलग से अदालतों के प्रावधान और फैसले का आग्रह भी किया, लेकिन अदालतों के पास पर्याप्त जज ही नहीं हैं. असल में इसके लिए सरकार, संसद और सर्वोच्च अदालत ही पूरी गंभीरता से निर्णय लागू कर सकते हैं.
राजनीति के अपराधीकरण का असली कारण यह है कि पहले पार्टियां और उनके नेता चुनावी सफलता के लिए कुछ दादा किस्म के दबंग अपराधियों और धनपतियों का सहयोग लेते थे. धीरे-धीरे दबंगों और धनपतियों को स्वयं सत्ता में आने का मोह हो गया. अधिकांश पार्टियों को यह मजबूरी महसूस होने लगी. पराकाष्ठा यहां तक हो गई कि नरसिंह राव के सत्ता काल में एक बहुत विवादास्पद दबंग नेता को राज्यसभा में नामांकित तक कर दिया गया.
ऐसे दादागीरी वाले नेता येन केन प्रकारेण किसी न किसी दल से चुनकर राज्यसभा तक पहुंच जाते हैं. दुनिया के किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में इतनी बुरी स्थिति नहीं मिलेगी. कुछ अफ्रीकी देशों में अवश्य ऐसी शिकायतें मिल सकती हैं, लेकिन दुनिया तो भारत को आदर्श रूप में देखना चाहती है. इस संदर्भ में हर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में ईवीएम मशीनों को लेकर कुछ पार्टियां और नेता संदेह पैदा करने की कोशिश करने लगे हैं. यदि वे विजयी हो रहे होते हैं, तो उन्हें मशीन ठीक लगती है और पराजय की हालत में मशीन में गड़बड़ी, हेराफेरी के आरोप लग जाते हैं.
यह बेहद दुखद स्थिति है, क्योंकि इससे गरीब, कम शिक्षित मतदाता ही नहीं शहरी लोग भी मतदान को अनावश्यक और गलत समझने लगते हैं. जबकि तकनीकी पुष्टि देश के नामी आईटी विशेषज्ञ कर रहे हैं. चुनाव सुधार अभियान के दौरान ऐसी अफवाहों पर अंकुश के लिए भी कोई नियम कानून बनना चाहिए. वैसे भी किसी चुनाव को अदालत में चुनौती का प्रावधान है. लोकतंत्न में आस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए व्यापक चुनाव सुधार और एक देश एक चुनाव के विचार पर जल्द ही सर्वदलीय सहमति से निर्णय होना चाहिए.