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ब्लॉग: शरद पवार के बड़े ऐलान के बाद आर-पार के चक्कर में मझधार में फंसे अजित पवार

By Amitabh Shrivastava | Updated: May 5, 2023 08:23 IST

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कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे की काका को संभालने की मिली सलाह को हल्के में लेने से शायद दूसरी बार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के नेता अजित पवार गच्चा खा गए हैं. इस बार राकांपा के प्रमुख शरद पवार ने जोर का झटका जोर से नहीं, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से दिया. हालांकि अजित के लिए अपने काका को आसानी से समझना कभी बस की बात नहीं रही, वर्ना राजनीति में बार-बार उन्हें दो कदम आगे और दो कदम पीछे नहीं होना पड़ता.

राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री पवार के लिए उलट-पुलट की बिसात तो वर्ष 2019 में ही बिछ गई थी, जब विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला और स्वाभाविक रूप से खिचड़ी सरकार का बनना तय था. मगर खिचड़ी इतनी गीली हो जाएगी कि वह किसी एक थाली में संभालते नहीं बनेगी, इसका अंदाज बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों को भी नहीं था. 

मंगलवार को जब देश के पूर्व रक्षा और कृषि मंत्री शरद पवार ने पार्टी के अध्यक्ष पद से निवृत्त होने की घोषणा की तो कहीं न कहीं आश्चर्य सभी जगह व्यक्त हुआ. चूंकि पटकथा पूर्व निर्धारित थी और जिसकी संकेतों में घोषणा उनकी बेटी ही कर चुकी थी, इसलिए पारिवारिक स्तर पर कोई भी चौंका नहीं. हालांकि प्रहसन के पात्र कई थे, लेकिन संवाद तय थे. 

इस पूरे खेल में जिस बात की घोषणा होनी थी, वह रह गई. वह थी राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार का उत्तराधिकारी कौन होगा? शायद राकांपा प्रमुख का यह पुराना राजनीतिक शगल है कि वह कल खेले जाने वाले पत्तों के बारे में आज कोई इशारा नहीं करते हैं. लिहाजा उनका काम तय ढंग से हुआ और भतीजे अजित को अचानक ही मझधार में फंसना पड़ गया.

अजित पवार अनेक बार स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि वह राष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते हैं. वह अपने आप को महाराष्ट्र तक सीमित रखना चाहते हैं. यदि उनके राजनीतिक करियर पर नजर दौड़ाई जाए तो उन्होंने पहला चुनाव लोकसभा का ही लड़ा था, जिसमें वह बारामती से वर्ष 1991 में सांसद बने थे, लेकिन उस दौरान पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव की सरकार में रक्षा मंत्री बनने के कारण शरद पवार को संसद के किसी सदन की सदस्यता लेनी थी, इसलिए डेढ़ माह बाद ही अजित पवार ने इस्तीफा देकर राकांपा के राष्ट्रीय प्रमुख के लिए लोकसभा सीट खाली कर दी. 

उसके बाद वह बारामती से विधानसभा चुनाव लड़ने पहुंचे और तब से 2019 तक वह वहीं से लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं. उनकी जीत का अंतर भी रिकार्ड बनाता रहता है. चुनावी इतिहास से भी स्पष्ट है कि वह एक बार संसदीय सीट छोड़ने के बाद दोबारा उस दिशा में कभी नहीं गए. वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में सीमित रहकर वह अपना कद ऊंचा करते चले गए. वह कभी अपनी बारी तथा कभी दबाव के चलते, किंतु चार बार उपमुख्यमंत्री बने. 

इस बढ़ते करियर ग्राफ और राजनीतिक हैसियत से उनके मन में राज्य का मुख्यमंत्री बनने का ख्याल आना स्वाभाविक था, लेकिन अनुभव और आकांक्षा को हमेशा नजरअंदाज किया गया. यहां तक कि वर्ष 2019 में महाराष्ट्र विकास आघाड़ी की सरकार बनने के समय भी वह जहां के तहां रह गए. बावजूद इसके कि वह भाजपा के साथ पांच दिन की सरकार में शामिल होकर काका को तगड़ा झटका दे चुके थे. इस सब के बीच उनके मन की चिंता, मन की इच्छा हिलोरें मारती रही. कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी पीठ पर हाथ रखते देखे गए, तो कभी वह स्वयं मोदी सरकार की तारीफ करते पाए गए.

स्पष्ट है कि विपक्ष में रहकर सत्ताधारी दल की सरकार की प्रशंसा करने के राजनीति में कई मायने होते हैं. अजित पवार ने सभी अर्थों को हमेशा जीवित रखा. अब जब राज्य विधानसभा के 16 विधायकों की पात्रता के संबंध में उच्चतम न्यायालय का फैसला आने की प्रतीक्षा हो रही है, ऐसे में अपना स्वतंत्र ओहदा तैयार करने के प्रयास में जुटना उनकी रणनीति का सबको स्पष्ट संकेत देता है. किंतु इस बार काका शरद पवार ने पहले और अप्रत्याशित कदम बढ़ाकर अचानक ही परेशानी बढ़ा दी है. 

यदि वह अपनी घोषणा में कोई नया ‘क्लाइमेक्स’ नहीं डालना चाहते तो अवश्य अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और कुछ नाम जैसे अपनी बेटी सुप्रिया सुले, वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल और जयंत पाटिल के नामों को अप्रत्यक्ष रूप से हवा में चर्चा के लिए छोड़ दिया. ऐसे में साफ हो गया कि पार्टी में जब भी कोई नया राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेगा तो अजित पवार की स्थिति दूसरे नंबर पर ही आएगी. 

यहां तक कि राज्य में पार्टी को संभालने के पूरे निर्णय भी हाथ में नहीं होंगे. ऐसे में किसी गठबंधन या समर्थन की नीति पर काम करना एकतरफा फैसला नहीं हो पाएगा. उसके लिए वृहद स्तर पर पार्टी की तैयारी होगी. ऐसे में किसी लक्ष्य को हासिल करना किसी एक व्यक्ति के लिए आसान नहीं होगा. इस परिप्रेक्ष्य में अजित पवार को यह जानना होगा कि राष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी न होने की घोषणा खुद उन्होंने ही की है.

फिलहाल राकांपा में कुछ दिन तक रूठने मनाने का भावनात्मक खेल चलेगा, किंतु पार्टी तय कार्यक्रम के अनुसार चलेगी. इन हालात के बीच लगातार पीछे ढकेले जाने से आहत रहने वाले अजित पवार अब आगे किसकी उंगली पकड़ कर चल पाएंगे, यह अनुमान लगाना मुश्किल है. मगर इतना तय है कि इस बार तूफान में फंसी कश्ती को बचाने के लिए उन्हें ही कदम उठाना होगा, क्योंकि अब काका संकट से निकालने के लिए नहीं आएंगे. 

इन दिनों तो कहने वाले सारे बदलाव के बाद उपजे संकट की वजह भी उनकी महत्वाकांक्षा को मान रहे हैं. इसलिए इस बार अपना दमखम उन्हें खुद ही दिखाना होगा. शायद यही उनके राजनीतिक जीवन की सामान्य परीक्षा भी होगी और भविष्य की अग्निपरीक्षा भी.

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