अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: धरती के धुंधलाते भविष्य को बचाना होगा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 22, 2019 05:55 AM2019-04-22T05:55:34+5:302019-04-22T05:55:34+5:30
कुछ वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और वल्र्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के साझा समर्थन से 95 देशों के अलग-अलग क्षेत्नों के 1360 विशेषज्ञ 2.4 करोड़ डॉलर के भारी-भरकम खर्च से मिलेनियम इकोसिस्टम एसेसमेंट (एमए) नामक जो रिपोर्ट तैयार कर चुके हैं, उसमें भी यही बात कही गई है.
कुछ बरस पहले जाने-माने भौतिकविद स्टीफन हॉकिंग ने चेतावनी दी थी कि अब जल्द ही इंसानों को अपने रहने लायक दूसरे ग्रह की तलाश कर लेनी होगी. वजह यह है कि जिस पृथ्वी पर इंसान बीते लाखों वर्षो से रह रहा है, उस पृथ्वी का अपना जीवन चुक रहा है. इसके कारण भी स्पष्ट हुए हैं. इनमें सबसे बड़ी वजह यह है कि जितने संसाधन यह पृथ्वी इंसानी आबादी को दे सकती है, इस पर मौजूद अरबों लोगों की भीड़ उससे कहीं ज्यादा संसाधन खींचने लगी है. जब संसाधन नहीं बचेंगे, तो इंसानों की प्रजाति का खात्मा भी तय है.
कुछ वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और वल्र्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के साझा समर्थन से 95 देशों के अलग-अलग क्षेत्नों के 1360 विशेषज्ञ 2.4 करोड़ डॉलर के भारी-भरकम खर्च से मिलेनियम इकोसिस्टम एसेसमेंट (एमए) नामक जो रिपोर्ट तैयार कर चुके हैं, उसमें भी यही बात कही गई है. एमए प्रोजेक्ट के मुखिया और विश्व बैंक में चीफ साइंटिस्ट रॉबर्ट वाटसन के शब्दों में कहें तो हमारा भविष्य हमारे ही हाथ में है पर दुर्भाग्य से हमारा बढ़ता लालच भावी पीढ़ियों के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं जाने देगा. उनकी रिपोर्ट कहती है कि इंसान का प्रकृति के अनियोजित दोहन के सिलसिले में यह दखल इतना ज्यादा है कि पृथ्वी पिछले 50-60 वर्षो में ही इतनी ज्यादा बदल गई है, जितनी मानव इतिहास के किसी काल में नहीं बदली. आधी शताब्दी में ही पृथ्वी के अंधाधुंध दोहन के कारण पारिस्थितिकी तंत्न का दो-तिहाई हिस्सा नष्ट होने के कगार पर है. जीवाश्म ईंधन यानी पेट्रोल-डीजल के बढ़ते प्रयोग और जनसंख्या-वृद्धि की तेज रफ्तार धरती के सीमित संसाधनों पर दबाव डाल रही है.
अलग-अलग हिस्सों में बांटने से संसाधनों के खर्च की तस्वीर और साफ होती है. जैसे 1961-2001 के बीच 40 साल के अंतराल में ही इंसानों के भोजन, फाइबर और लकड़ी की जरूरतों में 42 प्रतिशत का इजाफा हुआ. इसमें सबसे तेज दोहन यानी करीब 98 फीसदी वृद्धि मछली के उपभोग और 186 फीसदी की बढ़ोत्तरी चरागाहों के उपभोग में हुई. इस कारण 1970 से 2001 के बीच समुद्री जीव-जंतुओं की प्रजातियों में 30 फीसदी और ताजे पानी की जीव प्रजातियों में 50 फीसदी की गिरावट हुई. जहां तक प्रदूषण और जीवाश्म ईंधन के उपभोग का सवाल है तो 40 साल की अवधि में तेल फूंकने में हमने 700 प्रतिशत की तरक्की की है. जाहिर है प्रदूषण की रफ्तार भी कुछ ऐसी ही है. कुल मिलाकर मनुष्य ने संसाधनों की छीन-झपट करते हुए ग्लोब की आधी से ज्यादा जमीन कब्जा ली है. इस कब्जे से आशय है कि इस कारण दुनिया से 484 जीव प्रजातियां और 564 पादप प्रजातियां वर्ष 1600 के बाद से अब तक गायब हो चुकी हैं. पृथ्वी को खोखला बनाते वक्त इंसान को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह वह खुद अपनी कब्र खोद रहा है.