ऋतुपर्ण दवे का ब्लॉगः अभिजीत का नोबल है खास
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: October 17, 2019 02:14 PM2019-10-17T14:14:31+5:302019-10-17T14:14:31+5:30
इस वर्ष के अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी की इसी चिंता और उस पर लगातार काम तथा हासिल परिणामों ने उन्हें न केवल दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार तक पहुंचाया बल्कि उन्होंने दुनियाभर की आंखें भी अपने छोटे-छोटे सफल प्रयोगों से खोल दी जो गरीबी मिटाने के खातिर बनी योजनाओं पर बरसों बरस से सरकारों और प्रशासन की कथनी और करनी का फर्क बनी हुई थीं.
ऋतुपर्ण दवे
दुनियाभर में इस बात को लेकर अक्सर शक रहता है कि सरकार की गरीबों के लिए लोकलुभावन योजनाएं जमीनी हकीकत में कितनी सफल होंगी. दरअसल इसकी वजहें भी हैं और वह यह कि दफ्तरों में कागजों पर तो ये बहुत उपयोगी और जनकल्याणकारी दिखती हैं पर हकीकत में इसका लाभ उन तक नहीं पहुंच पाता है जिनके लिए बनी होती हैं. कारण पर चिंता किए बगैर योजनाओं को अमल में लाने से इन पर अंधाधुंध खर्च तो हो जाता है लेकिन जब नतीजों का लिटमस टेस्ट होता है तो योजनाओं का सारा अर्थशास्त्र नकारा साबित होता है.
इस वर्ष के अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी की इसी चिंता और उस पर लगातार काम तथा हासिल परिणामों ने उन्हें न केवल दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार तक पहुंचाया बल्कि उन्होंने दुनियाभर की आंखें भी अपने छोटे-छोटे सफल प्रयोगों से खोल दी जो गरीबी मिटाने के खातिर बनी योजनाओं पर बरसों बरस से सरकारों और प्रशासन की कथनी और करनी का फर्क बनी हुई थीं.
बिरले लोग ही होते हैं जो हकीकत के धरातल पर उतरकर, गरीबी भोगकर, देखकर किसी नतीजे पर पहुंचते हैं. कम से कम अर्थशास्त्र में यह फंडा जरूरी होता है जो अभिजीत बनर्जी उनकी अर्धांगिनी एस्थर डुफ्लो और माइकल क्रेमर ने कर दिखाया तथा संयुक्त विजेता बने.
अभिजीत बनर्जी मानते हैं कि गरीबी के बारे में बातें तो बहुत की जाती हैं, उन पर बड़े और बुनियादी सवाल भी होते हैं लेकिन इस पर कुछ नहीं होता. उनके एक किलो दाल के प्रयोग ने सरकारी योजनाओं की सफलता को न केवल पंख लगा दिए बल्कि साबित भी किया कि जरा सी अतिरिक्त मदद किस तरह सफलता का कारण बनती है जो दाल की तुलना में हजार गुना ज्यादा है.
गरीबों की जरूरतें और मजबूरी के बीच का वह महीन फर्क समझना होगा जिसके चलते गरीब एक दिन के खाने के जुगाड़ की कीमत के एवज में सेहत केलिए कई गुना फायदेमंद मुफ्त की बड़ी सुविधा तक छोड़ देते हैं. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारी सब्सिडी देने का इनका मॉडल कई देशों में लागू है. इनके रिसर्च पर ही भारत में गरीब दिव्यांग बच्चों की स्कूली शिक्षा को बेहतरी मिली और करीब 50 लाख बच्चों को फायदा मिला.