अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः नाकाम हो चुका है राम मंदिर का तीर

By अभय कुमार दुबे | Published: February 6, 2019 06:20 AM2019-02-06T06:20:51+5:302019-02-06T06:20:51+5:30

कुंभ की धर्म संसद में जैसे मोहन भागवत ने चार महीने रुकने और अगले साल तक इंतजार करने का आग्रह किया, वैसे ही वे भगवाधारी उनके विरोध में खड़े हो गए जो किसी समय विहिप के इशारे पर चलते थे.

abhay kumar dubey blog ram mandir not an issue now | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः नाकाम हो चुका है राम मंदिर का तीर

फाइल फोटो

साठ के दशक में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) की स्थापना करते समय गुरु गोलवलकर सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि एक दिन इसी परिषद द्वारा स्थापित-संचालित धर्म संसद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक हूट कर दिए जाएंगे. कुंभ के मेले में जो हुआ, वह बताता है कि एक रणनीतिक गलती किस कदर संगीन साबित हो सकती है, और उसके परिणाम राजनीतिक रूप से कितने नुकसानदेह हो सकते हैं. ये मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ही थे जिन्होंने राष्ट्रीय मंच से राम मंदिर बनवाने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया था और गेंद सीधे मोदी सरकार के पाले में फेंक दी थी.

उनके वक्तव्य के बाद संघ परिवार के सभी संगठन और बड़े पदाधिकारी सरकार पर दबाव बनाने लगे थे कि वे या तो संसद में विधेयक लाएं, और अगर विधेयक पारित होने लायक परिस्थिति न दिखे तो अध्यादेश जारी करें ताकि राम मंदिर बनाने के लिए रास्ता साफ हो सके. जिस समय संघ ने यह सिलसिला शुरू किया, उस समय एक बारगी ऐसा लगा था कि उन्होंने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विश्वास में लेकर यह कदम उठाया होगा. 
आखिरकार यह सरकार तो संघ परिवार की राजनीतिक भुजा भारतीय जनता पार्टी ही चला रही है, इसलिए अपनी ही सरकार पर दबाव डालने का कोई तुक नहीं दिख रहा था. लेकिन यह अंदाजा गलत साबित हुआ और कुछ दिन चुपचाप रहने के बाद साल के पहले दिन प्रधानमंत्री ने अपने इंटरव्यू में अध्यादेश लाने से इंकार कर दिया.

उनके वक्तव्य में यह भी निहित था कि वे संसद में कोई विधेयक लाने के इच्छुक भी नहीं हैं. अब संघ परिवार के सामने दो रास्ते थे. पहला, वह अपनी ही सरकार के खिलाफ आंदोलन करे; और दूसरा, कुशलतापूर्वक अपने ही द्वारा उठाए गए मसले को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश करे. संघ ने दूसरा रास्ता अपनाया, लेकिन इस प्रक्रिया में उसने उन्हीं ताकतों के हाथों अपनी छीछालेदर करने की परिस्थितियां बना दीं जो स्वयं उसने ही तैयार की थीं. कुंभ की धर्म संसद में जैसे मोहन भागवत ने चार महीने रुकने और अगले साल तक इंतजार करने का आग्रह किया, वैसे ही वे भगवाधारी उनके विरोध में खड़े हो गए जो किसी समय विहिप के इशारे पर चलते थे.

प्रश्न यह है कि संघ और मोहन भागवत ने ऐसा क्यों किया? ऐसा लगता है कि वे एक तीर से दो शिकार करना चाहते थे. संभवत: उनका पहला निशाना कांग्रेस थी जो पिछले एक साल से उस पिच पर खेल रही थी जिस पर संघ के निर्देश में पहले केवल भाजपा खेला करती थी. यह पिच थी हिंदू राजनीति की. कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में उसी बेलौसपन के साथ खुद को हिंदुओं की प्रतिनिधि बता रही थी जैसे कभी भाजपा ने स्वयं को हिंदू राजनीति के एकमात्र पैरोकार के तौर पर स्थापित किया था. भागवत को लगा होगा कि अगर राम मंदिर बनवाने के सवाल को राजनीति के केंद्र में ले आया जाए तो फिर कांग्रेस अपनी हिंदू-रणनीति पर नहीं चल पाएगी. 

यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि भागवत का दूसरा निशाना कौन था. अगर एक विश्लेषणात्मक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो कहा जा सकता है कि सरसंघचालक राम मंदिर के जिस तीर से कांग्रेस की रणनीति गड़बड़ाना चाहते थे, उसी तीर का दूसरा निशाना स्वयं उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे. वे उस राजनीतिक पहलकदमी को मोदी से छीन लेना चाहते थे जो 2014 में पूर्ण बहुमत प्राप्त करने का श्रेय मोदी के करिश्मे को मिलने के बाद संघ के हाथ से निकल गई थी.

मेरा मानना है कि लोकसभा में जीत के बाद संघ मोदी के एकछत्र राजनीतिक प्रताप को लेकर कभी सहज नहीं हो पाया. हम यह तथ्य कभी नहीं भूल सकते कि संघ मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाना चाहता था. पार्टी अध्यक्ष के रूप में पहले नितिन गडकरी और फिर राजनाथ सिंह को संघ ने यह जिम्मेदारी दी थी कि वे मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से रोकें. लेकिन ये दोनों नाकाम रहे और भाजपा की कार्यकर्ता पंक्ति के साथ-साथ कॉर्पोरेट जगत के एकतरफा समर्थन ने संघ के इरादे को नाकाम कर दिया. संघ को मजबूरी में मोदी के साथ खड़ा होना पड़ा. राम मंदिर का सहारा लेकर संघ अपनी इसी पुरानी नाकामी को पलटना चाहता था.    

राजनीतिक प्रेक्षक जानते हैं कि पिछले पांच साल में नरेंद्र मोदी देश के कई मंदिरों में गए, पर एक बार भी उन्होंने अयोध्या में पैर नहीं रखा. 2014 में भी उनके घोषणापत्र में राम मंदिर का सवाल बहुत पीछे और मामूली ढंग से ही आया था. मंदिर को केंद्रीय मुद्दा मान लेने का अर्थ था प्रधानमंत्री के रूप में अपनी स्वायत्तता खो देना. संघ और भाजपा के प्रधानमंत्री के बीच यह संघर्ष पहली बार नहीं हुआ है. अटल बिहारी वाजपेयी के ऊपर भी तत्कालीन सरसंघचालक सुदर्शन ने खासा विचारधारात्मक दबाव बनाया था. आडवाणी को उपप्रधानमंत्री बनवा कर वाजपेयी को सत्ता में हिस्सेदारी के लिए मजबूर कर देना इसी राजनीति का फलितार्थ था. उस समय संघ सफल रहा था, लेकिन आज वक्त बदल चुका है. मोदी के मुकाबले उसे नाकामी-दर-नाकामी ही हाथ लग रही है.

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