अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कोरोना-काल में राजनीतिक गोलबंदी
By अभय कुमार दुबे | Published: May 14, 2020 01:37 PM2020-05-14T13:37:01+5:302020-05-14T13:37:01+5:30
कोरोना संकट के बीच कई चीजें ठप पड़ गई हैं. इसमें राजनीति भी है. सीएए के खिलाफ आंदोलन बंद हो गया है. शिक्षा संस्थाएं बंद होने के कारण छात्र आंदोलन की संभावनाएं ही समाप्त हो गई हैं.कोरोना के कारण हर ओर मौन है.
भारतीय राजनीति फिलहाल पूरी तरह से कोरोना से संक्रमित लग रही है. लॉकडाउन की शुरुआत होने के बाद से ही सभी राजनीतिक गतिविधियां ठप हो गई हैं. महामारी के हमले से पहले नए नागरिकता कानून के खिलाफ सारे देश में शाहीनबाग जैसे प्रतिरोध-धरने चल रहे थे.
विश्वविद्यालयों में छात्र आंदोलन अपनी स्थानीयता की सीमा पार करके एक राष्ट्रीय रूप लेने की कोशिश कर रहा था. विपक्षी दल सोच रहे थे कि बेरोजगारी और शिक्षा के बाजारीकरण के विरोध में फूटने वाला यह युवा-आक्रोश कैसे राजनीति के साथ जोड़ा जाए. कुछ राज्यों में भाजपा की चुनावी हार ने भी इस विरोधी हवा को तेज किया था. लेकिन कोरोना ने सब कुछ ठप कर दिया. सीएए के खिलाफ आंदोलन बंद हो गया है. पता नहीं अब वह दोबारा कैसे शुरू होगा.
शिक्षा संस्थाएं बंद होने के कारण छात्र आंदोलन की संभावनाएं ही समाप्त हो गई हैं. गिरती हुई अर्थव्यवस्था के कारण जिस जन-असंतोष की अपेक्षा थी, वह कोरोना के प्रहार के कारण पूरी तरह से मौन हो गया है. अब सरकार आराम से आíथक समस्या का ठीकरा कोरोना के दरवाजे पर फोड़ सकती है. विपक्षी राजनीति के लिए जो भी गुंजाइशें खुल रही थीं, उनके दरवाजे फिलहाल बंद हो गए हैं.
भारतीय राजनीति पहले से ही नरेंद्र मोदी की शख्सियत के इर्दगिर्द घूम रही थी. कोरोना वायरस ने इस राजनीति को और भी ज्यादा मोदी-दृश्यमानता से भर दिया है. कोरोना के समय में विपक्ष अपने हितों के लिए मोदी पर किस कदर निर्भर हो गया है, इसका एक बड़ा उदाहरण महाराष्ट्र की राजनीति से मिलता है.
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को विधान परिषद में राज्यपाल द्वारा अपने नामांकन के लिए प्रधानमंत्री को फोन करना पड़ा. वरना अंदेशा था कि वे छह महीने के भीतर-भीतर किसी सदन की सदस्यता न ग्रहण कर पाने की सूरत में मुख्यमंत्री पद के योग्य नहीं रह जाएंगे. क्या कोरोना से पैदा हुई विशिष्ट परिस्थितियों को देखते हुए राज्यपाल को अपने आप यह कदम नहीं उठाना चाहिए था? क्या मोदी के सामने मोहताज होने के बजाय उद्धव इस प्रश्न को एक बहुमतसंपन्न गठजोड़ सरकार की स्वायत्तता और सम्मान का प्रश्न नहीं बना सकते थे? लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
दरअसल, यह एक असाधारण स्थिति है. विपक्ष तो छोड़ ही दीजिए, नागरिक समाज की शक्तियों द्वारा की जाने वाली राजनीति के लिए भी कोई स्पेस नहीं बचा है. प्रवासी मजदूरों की समस्या को मानवाधिकार के नजरिए से देखने वाली आवाजें कहीं सुनाई नहीं दे रही हैं. इसी तरह से 14 करोड़ लोगों का रोजगार चले जाने के सवाल पर किसी बेरोजगारी विरोधी आंदोलन की कोई सुगबुगाहट नहीं सुनाई दे रही है. क्या दुनिया के दूसरे देशों में भी राजनीति इसी प्रकार सत्ता के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई है? नहीं, यह खास तौर से भारत की ही स्थिति है.
अमेरिका में देखें तो विपक्षी नेताओं, नागरिक समाज की शक्तियों और स्वयं सत्तारूढ़ रिपब्लिकन पार्टी की भीतरी आवाजें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को बार-बार झड़प के अंदाज में चुनौती देती रहती हैं. दक्षिण कोरिया में इसी दौरान हुए राष्ट्रपति चुनाव से पता चलता है कि वहां राजनीतिक प्रतियोगिता अभी कोरोना से पीड़ित नहीं हुई है.
अमेरिका और दक्षिण कोरिया के इन उदाहरणों से हमें इस बात का भी एक अंदाजा मिलता है कि कोरोना के समय में वोटों की गोलबंदी का किरदार किस तरह बदल सकता है. द. कोरिया में वोटिंग बूथों को पहले सैनिटाइज किया गया, वोटरों ने एक-दूसरे से फासला रख कर लाइन लगाई, उनकी थर्मल स्क्रीनिंग हुई, जिन्हें बुखार निकला उन्हें अलग ले जाकर वोटिंग कराई गई और फिर उन्हें टेस्टिंग के लिए भेजा गया.
अमेरिका में इस साल चुनाव होने हैं. अभी यह पता नहीं लग पाया है कि क्या वहां पोस्टल बैलेट पर इस बार ज्यादा निर्भरता दिखाई देगी. आखिर कोरोना का दुनिया में सबसे ज्यादा कहर अमेरिका पर ही बरपा हुआ है. भारत को द. कोरिया और अमेरिका के उदाहरणों को ध्यान से देखना चाहिए. इनसे सुराग मिलता है कि कोरोना के साथ रहते हुए लोकतांत्रिक राजनीति की शक्ल-सूरत कैसी हो सकती है. अब इस राजनीति में आने वाले काफी समय तक भीड़ भरे प्रदर्शनों, जनसभाओं, रोड शो जैसे आयोजनों और बड़ी-बड़ी रैलियों तथा जुलूसों के लिए कोई जगह नहीं होगी.
इसका मतलब यह होगा कि लोकतांत्रिक गोलबंदी के तौर-तरीकों में रैडिकल परिवर्तन करना होगा. कोई नहीं जानता कि कोरोना का पूरा प्रभाव कब खत्म होगा. संभवत: उस समय तक इसके खत्म होने की गारंटी नहीं ली जा सकती जब तक एक प्रभावी वैक्सीन को ईजाद न कर लिया जाए. तब तक राजनीतिक गोलबंदी में भी कथित ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का पालन करना पड़ सकता है.