अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: इस तरह से जीता गया उत्तर प्रदेश का चुनाव

By अभय कुमार दुबे | Published: March 16, 2022 03:36 PM2022-03-16T15:36:56+5:302022-03-16T15:39:29+5:30

उत्तर प्रदेश का इस बार चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं था. इसका अहसास भाजपा को भी पहले से था. यूपी कैबिनेट के 11 मंत्री चुनाव हार गए. इनमें एक उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी हैं.

Abhay Kumar Dubey blog: How BJP won Uttar Pradesh assembly election | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: इस तरह से जीता गया उत्तर प्रदेश का चुनाव

यूपी में भाजपा की दूसरी बार जीत के मायने (फाइल फोटो)

भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनाव जीत जरूर गई है, लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि उसके विरोध में एंटी-इनकम्बेंसी थी ही नहीं. 2017 में भाजपा ने करीब चालीस प्रतिशत वोटों के जरिये 312 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की थी. इस बार वह 41.2 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद केवल 255 सीटें ही जीत पाई. यानी उसने पहले से 57 सीटें कम प्राप्त कीं. और तो और, उसके 11 मंत्री चुनाव हार गए. इनमें एक उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी हैं. 

चुनाव से पहले ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश पुलिस के लोकल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट (एलआईयू) के जरिये एक कास्ट-एफिनिटी विेषण (कितनी जातियां भाजपा के अनुकूल हैं और कितनी प्रतिकूल) करवाया था. इस विश्लेषण को पार्टी ने यथार्थ के नजदीक माना और उसे प्रकाशित करके अपने संगठन में वितरित भी करवाया. पत्रकारों और समीक्षकों को इस दस्तावेज की प्रतियां भी भाजपा के भीतरी स्रोतों से ही मिलीं. 

यह दस्तावेज भी स्वीकार करता है कि भाजपा को अपने खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी का एहसास था. उसे पता था कि इस बार करीब पच्चीस फीसदी ब्राह्मण उसे वोट नहीं देंगे. पचास प्रतिशत जाट, गूजर, राजभर, बिंद और कुशवाह समुदायों ने उसे वोट न देने का मन बना रखा है. पिछली बार इन जातियों के पूरे वोट भाजपा को ही मिले थे. इस दस्तावेज के अनुसार भाजपा को इस बार जाटवों के केवल 25 फीसदी वोट मिलने की संभावना थी, जबकि 2017 में जाटवों ने 35 से 40 प्रतिशत वोट भाजपा को ही दिए थे. 

दस्तावेज यह भी कहता था कि 26 जातियां (ठाकुर, कायस्थ, बनिया, भूमिहार, मौर्य, लोधी, सैनी, पासी, कोरी, शाक्य, त्यागी, बघेल, वाल्मीकि, खरवार, धोबी, सिख, पाल, गोस्वामी, सहरिया, जमादार, हलवाई, लोहार, सिंधी, गोंड, डोम और वनवासी) अपने सभी वोट भाजपा को ही देंगी. दस्तावेज के मुताबिक केवल यादवों और मुसलमानों के सौ फीसदी वोट भाजपा के विरोध में पड़ने वाले थे.

अगर भाजपा को इस दस्तावेज के विश्लेषण पर शक होता तो वह उसे स्वीकार ही नहीं करती. यह विेषण इस हद तक सही था कि इसमें भाजपा को 255 सीटें जिताने का अनुमान लगाया गया था, और चुनाव में भाजपा की जीत का आंकड़ा इतना ही है. इससे स्पष्ट होता है कि भाजपा के पक्ष में कोई लहर नहीं थी. उसने एक आकर्षक लगने वाली जीत जरूर दर्ज की है, लेकिन उसका सामाजिक गठजोड़ आकार में सिकुड़ गया है और उसके दायरे से बहुत से वोटों का रिसाव हुआ है. अगर यह गठजोड़ 2017 या 2019 की भांति होता तो भाजपा तीन सौ से ऊपर सीटें लाती और उसका आंकड़ा सहयोगियों समेत 350 तक जा सकता था. 

यहां एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि भाजपा ने अपनी इस कमी को बहुत पहले समझ लिया था. सूत्रों के अनुसार अक्तूबर-नवंबर के दौरान कराए गए एक आंतरिक सर्वेक्षण के जरिये आलाकमान को एंटी-इनकम्बेंसी दिख गई थी. उसे नरम करने के लिए एक योजना तैयार की गई जिसके तहत सरकारी खजाने से 54 हजार करोड़ खर्च करके कोविड के दौरान बंटने वाले मुफ्त राशन की योजना (जो नवंबर में खत्म होने वाली थी) को मार्च तक बढ़ाया गया. यह एक असाधारण योजना थी जिसने योगी आदित्यनाथ सरकार के विरोध में उमड़ रही भावनाओं को संयमित करने की भूमिका निभाई.

इस चुनाव से पक्ष-विपक्ष को कई सबक प्राप्त हुए हैं. सत्ता पक्ष के सामने सवाल यह है कि क्या वह मुफ्त राशन बंटवाना जारी रखेगा? अगर हां, तो इसके लिए धन कहां से आएगा? अगर नहीं तो इसका सीधा मतलब होगा कि यह चुनाव जीतने का एक बेहद महंगा हथकंडा था जिसका खामियाजा अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ेगा. सत्तापक्ष को यह भी देखना है कि इस चुनावी जीत से आदित्यनाथ की शख्सियत पहले से कहीं ज्यादा विराट रूप में उभरी है. 

अब वे अगर अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति और मुखर ढंग से करेंगे तो उसे उनके स्वाभाविक अधिकार की तरह देखा जाएगा. अगर उन्होंने यह सब करना शुरू कर दिया तो मोदी-शाह-नड्डा की तिकड़ी उसे किस रूप में ग्रहण करेगी? सत्ता पक्ष यह भी चाहेगा कि वह अपना सामाजिक गठजोड़ 2017 की भांति मजूबत कर ले. इसके लिए उसे उत्तर प्रदेश में चले राजपूतवाद को भी संयमित करना होगा. इसके लिए आलाकमान को योगी आदित्यनाथ को संयमित करना पड़ेगा, जो बहुत मुश्किल काम है.

विपक्ष को देखना यह है कि विधानसभा में जो वोट उसे प्राप्त हुए हैं, क्या वे लोकसभा चुनाव में भी प्राप्त हो पाएंगे? इस बात का पूरा अंदेशा है कि समाजवादी पार्टी के यादव वोटों का कम-से-कम एक हिस्सा प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के आकर्षण की भेंट चढ़ सकता है. इसी तरह पश्चिमी उ.प्र. में जाट-गूजर-त्यागी-सैनी जैसी जातियां एक बार फिर पूरी तरह से भाजपा के साथ जा सकती हैं. और तो और, जयंत चौधरी की पार्टी भी भाजपा के साथ गठजोड़ कर सकती है. 

सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सपा और उसके मौजूदा सहयोगी अगले दो साल में किस तरह की राजनीति करते हैं. बसपा केवल जाटवों की पार्टी रह गई है. उसे यह देखना होगा कि लोकसभा चुनाव में क्या
जाटव भी पूरी तरह से उसके साथ रह पाएंगे?

 

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: How BJP won Uttar Pradesh assembly election

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