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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: आंदोलन का मतलब ही होता है सत्ता की अवज्ञा

By अभय कुमार दुबे | Updated: February 23, 2021 10:23 IST

किसान आंदोलन में अब गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र के दूरदराज इलाकों से भी किसानों के जत्थे लंबी-लंबी यात्रएं करके इसमें अपनी आवाज मिलाने आ रहे हैं.

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ठळक मुद्देजारी किसान आंदोलन के बीच किसानों की एकता को तोड़ने की चल रही है कोशिश28 जनवरी की घटना के बाद किसान आंदोलन ने ले लिया नया रूपगुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र के दूरदराज इलाकों से भी पहुंच रहे हैं किसान

आंदोलन का मतलब होता है अवज्ञा. सत्ता की अवज्ञा और प्रशासन की अवज्ञा. सरकार, प्रशासन और पुलिस से पूछ कर जन-आंदोलन नहीं होते. ऐसे आंदोलन केवल सांकेतिक होकर रह जाते हैं. 

इनमें मित्रतापूर्ण ढंग से गिरफ्तारियां दी जाती हैं. थाने में जलपान करने के बाद नेता और कार्यकर्ता छोड़ दिए जाते हैं. टी.वी. और अखबार की खबर बन जाती है. इसे आंदोलन नहीं बल्कि आंदोलन की खानापूर्ति कहा जाना चाहिए. 

दरअसल, जो आंदोलन अवज्ञाकारी नहीं होता, वह किसी काम का नहीं होता. अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में गांधीजी इसी को सविनय अवज्ञा कहते थे. दिल्ली की सीमाओं पर हो रहा किसान आंदोलन उसी सविनय अवज्ञा का ताजा प्रमाण है. 

इस किसान आंदोलन की विशेषता यह है कि यह कहीं भी सरकार से हेलमेल करते हुए नजर नहीं आता. यहां तक कि विज्ञान भवन में होने वाली वार्ता के दौरान यह सरकार की चाय और भोजन भी स्वीकार नहीं करता. 

यह बात भले ही बहुत बड़ी क्यों न लगे, लेकिन इससे प्रतिरोध का एक रूपक निकलता है जिसकी अहमियत से इंकार नहीं किया जा सकता.

किसान आंदोलन: सरकार कर रही है एकता तोड़ने की कोशिश!

आंदोलनकारी नेतृत्व की दृढ़ता का परिणाम यह निकला है कि जो किसान नेता आंदोलन के साथ न हो कर सरकार के साथ साजबाज करता नजर आता है, वह भले ही चालाकी से टी.वी. पर पेश कर दिया गया हो, पर वास्तव में वह किसान नेता के रूप में अपनी वैधता खोता नजर आ रहा है. 

सरकार द्वारा एकता तोड़ने की कोशिश दो स्तरों पर चल रही है. पहली एक हथकंडे के रूप में, और दूसरी एक विमर्श के रूप में. हथकंडे का मतलब यहां संयुक्त किसान मोर्चे के कुछ सदस्यों से छिप कर बात करने, आंदोलन के खिलाफ अफवाहें उड़ाने और पुलिस-प्रशासन के नोटिसों या मुकदमों के जरिये उनमें डर पैदा करने से है. 

पिछले तीन महीने से आजमाए जा रहे इन हथकंडों का आंदोलन पर अभी तक कोई असर नहीं दिख रहा है. विमर्श के रूप में सरकार दो तरह की कोशिशें कर चुकी है. 

पहला प्रयास उस समय किया गया था जब सरकार समर्थक बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों ने कहना शुरू किया था कि यह तो केवल दो लाख परिवारों का आंदोलन है, और ज्यादातर किसान इसके दायरे से बाहर हैं. यानी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के दस लाख लोगों में ही इस आंदोलन का समर्थन आधार है. 

जल्दी ही यह दावा गलत साबित हो गया. गाजीपुर बॉर्डर पर हुई 28 जनवरी की घटना के बाद महापंचायतों में जो भीड़ उमड़ी, उसने सरकार को चौंका दिया. इसके बाद यह स्पिन दिया गया कि यह आंदोलन तो केवल जाटों का है. लेकिन महापंचायतों में मुसलमानों, गूजरों और मीणाओं की भागीदारी ने इस दांव को भी नाकाम कर दिया. 

अन्य राज्यों से भी पहुंच रहे हैं किसान

ताजा स्थिति यह है कि गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र के दूरदराज इलाकों से भी किसानों के जत्थे लंबी-लंबी यात्रएं करके इस आंदोलन की आवाज में अपनी आवाज मिलाने आ रहे हैं. 

21 फरवरी को गाजीपुर बॉर्डर पहुंचे इन किसानों ने जब राकेश टिकैत से मुलाकात की तो उनकी आंखें भीग गईं. टिकैत ने उन्हें दिलासा दिया. इन किसानों का कहना था कि दिल्ली के इस आंदोलन ने उनके इलाकों में भी किसानों के बीच प्रतिरोध की चेतना फूंक दी है.

समीक्षकों ने प्रधानमंत्री के एक हालिया भाषण के जरिये किसान आंदोलन की छवि बदलने की एक और कोशिश दर्ज की है. प्रधानमंत्री ने स्वयं को गरीब किसानों के खैरख्वाह के रूप में पेश किया. कुछ इस अंदाज में जैसे कि यह आंदोलन बड़े अमीर किसानों का हो. 

असलियत इसके विपरीत है. यह आंदोलन ज्यादा से ज्यादा तीन लाख से बारह लाख रुपए सालाना कमाने वाले खेतिहरों की भागीदारी वाला है. यानी हर हालत में यह गरीब और मंझोले किसानों का आंदोलन है. 

प्रधानमंत्री की इस कोशिश से साफ है कि भाजपा और उनकी सरकार न तो इस आंदोलन का सामाजिक चरित्र ठीक से समझ पाई है, और न ही उसकी आर्थिक संरचना उसकी समझ में आई है.

किसान आंदोलन: सरकार का रवैया रहा है नकारात्मक

अभी तक आंदोलन के प्रति सरकार का रवैया नकारात्मक और तोड़फोड़ वाला रहा है. अगर उसका बस चलता तो उसने किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेताओं की एकता कभी की तोड़ दी होती. दरअसल, इस किस्म की हथकंडेबाजी बातचीत के दूसरे चक्र से ही शुरू हो गई थी. 

इधर वार्ता खत्म हुई और उधर सरकार ने अपने प्रति नरम रुख रखने वाले किसान नेता या नेताओं से पीठ पीछे गुफ्तगू शुरू की. लेकिन इसके वैसे परिणाम नहीं निकले, जैसे सरकार और उसके रणनीतिकार चाहते थे. 

आंदोलन की मांगों का ठोस रूप किसानों के मन में इतनी गहराई से उतर चुका था कि ढुलमुल रवैया रखने वाले किसान नेताओं की जल्दी ही समझ में आ गया कि अगर वे सरकार के पक्ष में दिखाई भी दिये तो जीवन भर की साख खो देंगे. गाजीपुर बॉर्डर पर उत्तरोत्तर मजबूत हुए धरने की कहानी आंदोलन के इस पहलू का प्रमाण है।

टॅग्स :किसान आंदोलनराकेश टिकैत
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