अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चुनाव में जातियां भी चलीं और धर्म भी चला
By अभय कुमार दुबे | Published: June 5, 2019 05:25 AM2019-06-05T05:25:29+5:302019-06-05T05:25:29+5:30
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि क्या विजेता पार्टी भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में जाति-धर्म का सहारा नहीं लिया? अशोका यूनिवर्सिटी के त्रिवेदी शोध केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक भाजपा ने अपने 45 फीसदी से ज्यादा टिकट ऊंची जाति के उम्मीदवारों को दिए, क्योंकि भाजपा जानती है कि ये जातियां उसकी सर्वाधिक निष्ठावान समर्थक हैं.
लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी की जबर्दस्त जीत से प्रभावित होकर लगभग सभी मीडिया मंचों पर यह कहा जा रहा है कि यह चुनाव-परिणाम जाति और धर्म के ऊपर देशहित या राष्ट्रहित की जीत है. इस कथन में यह दावा भी निहित है कि जाति की राजनीति अब खत्म हो गई है या खात्मे की तरफ है.
अगर ठोस रूप से देखें तो इस कथन में जाति का मतलब है कुछ ऐसी पिछड़ी और दलित जातियां (जैसे यादव और जाटव) जिन्होंने अब तक भाजपाई राजनीति की अधीनता स्वीकार नहीं की है, और धर्म का मतलब है मुख्य रूप से मुसलमानों की भाजपा विरोधी राजनीतिक गोलबंदी. यह तथ्यात्मक रूप से सही है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में इन जातियों और मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाले राजनीतिक दलों की जबर्दस्त हार हुई है.
अगर आपस में उनके वोटों को जोड़ भी दिया जाए (उत्तर-प्रदेश में महागठबंधन के जरिए ऐसी कोशिश भी की गई) तो भी भाजपा को उससे ज्यादा वोट मिलते नजर आते हैं. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी की पिछले पांच साल में यह लगातार तीसरी हार है, और बिहार के राष्ट्रीय जनता दल को दूसरी हार का सामना करना पड़ा है.
चूंकि ये सभी पार्टियां मुख्य रूप से किसी-न-किसी एक जाति और उसके साथ मुसलमानों के समर्थन के आधार पर टिकी हुई हैं, इसलिए इनकी पराजय को जाति-धर्म की पराजय के रूप में दिखाया जा रहा है. आंकड़ों के लिहाज से ठीक होने के बावजूद यह दावा कुछ और जांच-पड़ताल की मांग करता है. मेरे विचार से इसे देखने के लिए एक भिन्न परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता होगी.
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि क्या विजेता पार्टी भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में जाति-धर्म का सहारा नहीं लिया? अशोका यूनिवर्सिटी के त्रिवेदी शोध केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक भाजपा ने अपने 45 फीसदी से ज्यादा टिकट ऊंची जाति के उम्मीदवारों को दिए, क्योंकि भाजपा जानती है कि ये जातियां उसकी सर्वाधिक निष्ठावान समर्थक हैं. पार्टी हारे जीते, ये जातियां चुनाव-दर-चुनाव भाजपा को साठ-सत्तर फीसदी के आसपास वोट करती रही हैं. इसमें भी भाजपा ने स्पष्ट रूप से ब्राह्मणों को 15 टिकट दिए और 13 ठाकुरों को उम्मीदवार बनाया.
भाजपा ने केवल एक यादव को टिकट दिया, क्योंकि उसे पता था कि यह समुदाय इस बार समाजवादी पार्टी को जमकर समर्थन देगा. चूंकि भाजपा को पता था कि गैर-यादव पिछड़ी जातियां उसके पक्ष में वोट करती रही हैं, इसलिए उसने दस पिछड़ी जातियों के बीच में 19 टिकट बांटे. इसी तरह बसपा के समर्थक समझा जाने वाले जाटवों को भाजपा के केवल चार टिकट दिए और बाकी 17 टिकट गैर-जाटव दलित जातियों में वितरित किए. जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उ.प्र. में मुसलमानों की आबादी बीस फीसदी के लगभग है. लेकिन भाजपा ने उसमें से एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया.
अगर मोटे तौर पर मान लिया जाए कि उ.प्र. में दस फीसदी यादव हैं, दस फीसदी जाटव हैं और बीस फीसदी मुसलमान हैं, तो प्रदेश की इस चालीस फीसदी जनता को भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति से तकरीबन बहिष्कृत रखा. यह विश्लेषण भाजपा के ऊपर कोई आरोप नहीं है. उसे भी अपनी चुनावी रणनीति बनाने का पूरा हक है. आखिरकार समाजवादी पार्टी ने अपने आधे टिकट केवल यादव उम्मीदवारों को देना ही पसंद किया. मायावती ने भी सबसे ज्यादा टिकट जाटवों को दिए, हालांकि यह कहना होगा कि बसपा ने समाज के अन्य तबकों का भी ध्यान रखा और उसका टिकट वितरण सामाजिक दृष्टि से सर्वाधिक प्रातिनिधिक प्रतीत होता है.
ऐसा लगता है कि बसपा को इसका लाभ भी मिला. उसके जीते हुए उम्मीदवारों में ब्राrाण, ठाकुर, अन्य ऊंची जातियों, यादवों, अन्य पिछड़ी जातियों, जाटवों और मुसलमानों की मिली-जुली संख्या दिखाई पड़ती है. इसीलिए उसे सपा के मुकाबले वोट भी ज्यादा मिले.
स्पष्ट रूप से उत्तर भारत में भाजपा ऊंची जातियों, गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों की पार्टी के तौर पर उभरी है. यह आधे से अधिक हिंदू समाज की भाजपा समर्थक हिंदू एकता का नजारा है. इस हिंदू एकता का एक मकसद है सामाजिक न्याय की तथाकथित ब्राrाण विरोधी राजनीति को हाशिये पर धकेल देना और दूसरा मकसद है मुसलमानों के वोटों की प्रभावकारिता को समाप्त कर देना. पिछले पांच साल से उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता निष्ठापूर्वक भाजपा विरोधी मतदान करने के बावजूद चुनाव परिणाम पर कोई प्रभाव डालने में नाकाम रहे हैं. लोकतंत्र बहुमत का खेल है, और देश में हिंदुओं का विशाल बहुमत है.
मुसलमान वोटर किसी बड़े हिंदू समुदाय के साथ जुड़ कर ही चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं. उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता आम तौर पर पिछड़ी और दलित जातियों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों को समर्थन देते रहे हैं. बाकी जगहों पर वे कांग्रेस के निष्ठावान वोटर हैं. दिक्कत यह है कि कथित रूप से सेक्युलर राजनीति करने वाली इन पार्टियों को हिंदू मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने त्याग दिया है. हिंदू राजनीतिक एकता के तहत 42 से 50 फीसदी के आसपास हिंदू वोट एक जगह जमा हो जाते हैं. 2017 के उ.प्र. चुनाव में भी यही हुआ था और इस चुनाव में भी यही हुआ है.