अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: राजनीतिक दलों को करनी होगी 'जाति-प्लस' की राजनीति
By अभय कुमार दुबे | Published: October 19, 2021 12:28 PM2021-10-19T12:28:11+5:302021-10-19T12:29:45+5:30
एक पुरानी कहावत है कि जो तलवार के दम पर जीता है, वह तलवार के घाट उतरने से नहीं बच सकता. इस कहावत के आईने में भारत की लोकतांत्रिक राजनीति देखी जा सकती है.
यह सही है कि समाज जातियों में बंटा है, और राजनीतिक गोलबंदी की सर्वप्रमुख इकाई जाति ही है लेकिन जातियां सत्ता में भागीदारी ही नहीं, बल्कि आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक, वैचारिक और सांस्कृतिक स्पर्श भी चाहती हैं. यही है वह ‘जाति-प्लस’ जिसे मुहैया कराने में पार्टियां विफल रहती हैं.
सच्चा हो या झूठा, आजादी के बाद केवल कांग्रेस के पास यह स्पर्श था. जैसे ही कांग्रेस भी जातियों के खोखले गठजोड़ बनाने लगी, उसके पलड़े से भी लोग छिटकने शुरू हो गए. कांग्रेस का यह हश्र होना करीब बीस साल बाद शुरू हुआ था. भाजपा स्वयं को विचारधारात्मक पार्टी जरूर कहती है, लेकिन इसके बावजूद उसकी यह गति कांग्रेस के मुकाबले काफी कम समय में होती दिख रही है.
पिछले हफ्ते इसी स्तंभ में चर्चा की गई थी कि किस तरह जातिगत गठजोड़ बनाने की राजनीति से उपजी दुविधाओं के कारण भाजपा लखीमपुर खीरी कांड के आरोपी केंद्रीय राज्यमंत्री और उनके बेटे के बारे में विरोधाभासों और अंतर्विरोधों में फंसी रही.
ऐसा लगता है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की नुमाइंदगी करने वाले रणनीतिकार मिश्र पिता-पुत्र को कानून के कोप से बचाने के पक्ष में थे, लेकिन योगी का प्रादेशिक नेतृत्व चाहता था कि इन दोनों को फटाफट निबटा कर अपनी सरकार की गिरती हुई छवि को और गिरने से रोका जाए.
यही कारण था कि जब राज्यमंत्री मिश्र लखनऊ स्थित भाजपा के प्रादेशिक कार्यालय में गए तो वहां मौजूद प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह और अन्य पदाधिकारियों ने उनसे बात तक नहीं की. फिर स्वतंत्र देव ने वक्तव्य दिया कि भाजपा लोगों को गाड़ी से कुचलने की राजनीति नहीं करती है.
इस रवैये का परिणाम यह निकला कि जैसे ही स्पेशल इन्वेस्टिंग टीम को टेनी के बेटे मोनू की सफाई में झोल दिखा, उसे गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन इसका मतलब यह नहीं निकला जा सकता कि इस कार्रवाई से भाजपा की सरकार की छवि को हुए नुकसान की भरपाई हो गई है.
ऐसे बहुत से वोटर जो भाजपा से नाराज होने के बावजूद उसके खिलाफ बोलने या वोट डालने का मन नहीं बना पा रहे थे, वे इस कांड से दहल गए हैं. यह कांड उन्हें हाथ पकड़ कर भाजपा-विरोधी पाले में ले जाने की भूमिका निभा रहा है. असलियत यह है कि लखीमपुर खीरी में कार के टायरों से कुचल कर शहीद हुए किसानों का खून पूरे चुनाव की तस्वीर बदले दे रहा है.
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, लखीमपुरी खीरी कांड ने उसके लिए इससे भी ज्यादा दिलचस्प भूमिका निभाई है. प्रियंका गांधी ने जिस जोश और आक्रामकता के साथ इस कांड के इर्दगिर्द राजनीति की है, उससे कई लोगों को उम्मीद बंध गई है कि शायद अब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बाजी मजबूत हो जाएगी. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है?
मेरा मानना है कि प्रियंका की इस राजनीति से कांग्रेस को लाभ तो होगा, लेकिन उत्तर प्रदेश में न होकर पंजाब पर उसका असर ज्यादा पड़ सकता है. शायद प्रियंका भी जानती होंगी कि लखीमपुर खीरी कांड में तीन दिन तक जेल जाकर और झाड़ू लगाकर वे पंजाब में अपनी बिगड़ी हुई जमीन को कुछ सुधार लेंगी, न कि उत्तर प्रदेश में हवा का रुख उनकी ओर मुड़ेगा.
पंजाब में कांग्रेस की दुर्गति हो गई, लेकिन अभी तक उन्होंने और राहुल ने पंजाब कांग्रेस के घटनाक्रम पर मीडिया में मुंह नहीं खोला है. प्रियंका की पहलकदमियों से इन भाई-बहन को उम्मीद बंधी है कि शायद इतिहास अब उनके साथ नरमी से पेश आएगा.
उत्तर प्रदेश में अगर कांग्रेस को कामयाब होना है तो उसे सामाजिक गठजोड़ बनाने होंगे. इसके लिए जरूरी है कि कोई एक बड़ी जाति निष्ठापूर्वक कांग्रेस का साथ दे. साथ ही कांग्रेस किसी लोकप्रिय विचार के घोड़े पर सवार होकर वोटरों के सामने कुछ आकर्षक प्रस्ताव पेश करे. ऐसा न होने पर जातिगत गठजोड़ भी अंतत: काम करने से इंकार कर देते हैं.
कई पार्टियां इस तरह के हश्र का शिकार हो चुकी हैं. एक पुरानी कहावत है कि जो तलवार के दम पर जीता है, वह तलवार के घाट उतरने से नहीं बच सकता. इस कहावत के आईने में भारत की लोकतांत्रिक राजनीति देखी जा सकती है. बस तलवार की जगह ‘जाति’ शब्द को रख देना होगा. जो राजनीति जाति के दम पर कामयाब होती है, वह जाति के हथियार से ही नाकाम कर दी जाती है.
इस कथन को प्रमाणित करने के लिए न जाने कितनी मिसालें दी जा सकती हैं. इसका सबसे प्रभावशाली उदाहरण है सामाजिक न्याय की राजनीति का दावा करने वाली पार्टियां. किसी एक प्रधान जाति को आधार बनाकर उसके इर्द-गिर्द अन्य जातियों को जोड़ कर सत्ता में आने की रणनीति बनाने वाले ये दल अपने इस फार्मूले के कारण कमोबेश तीस साल तक सफलता का स्वाद चखते रहे.
चूंकि इन दलों के पास सामाजिक न्याय के नाम पर ‘जाति-प्लस’ की राजनीति करने के किसी संकल्प और योजना का अभाव था, इसलिए भाजपा ने जाति की वैसी ही राजनीति करने का बेहतर कौशल दिखा कर इन्हें इनके खेल में ही मात दे दी.