अधिकारों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं कर्तव्य, विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग
By विश्वनाथ सचदेव | Published: August 13, 2021 03:52 PM2021-08-13T15:52:44+5:302021-08-13T15:53:58+5:30
संविधान की प्रस्तावना में हमने समानता और बंधुता को रेखांकित किया था, पर आजादी पा लेने के इतने साल बाद भी हम धर्म के आधार पर किसी को कम और किसी को ज्यादा भारतीय मानने का अपराध खुलेआम कर रहे हैं.
वर्ष 1942 में जब महात्मा गांधी ने मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की हुंकार भरी थी और देश को ‘करो या मरो’ का मंत्न दिया था, तो उन्होंने उस जनतंत्न की बात भी की थी जिसका सपना वे देख रहे थे.
गांधीजी ने कहा था, ‘अहिंसा के माध्यम से जिस जनतंत्न की स्थापना की कल्पना मैं कर रहा हूं, उसमें हर एक को समान स्वतंत्नता होगी. हर कोई अपना मालिक स्वयं होगा. ऐसे जनतंत्न के लिए संघर्ष का आह्वान मैं आज कर रहा हूं.’ इस एक वाक्य में तीन महत्वपूर्ण बातें समाई हुई हैं : पहली तो समान स्वतंत्नता वाली बात, दूसरी हर एक का अपना मालिक स्वयं होने वाली और तीसरी संघर्ष वाली बात.
ये तीनों बातें आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और सार्थक हैं जितनी 1942 में थीं. अब जब हम अपनी स्वतंत्नता के 75 वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं, हर नागरिक की समानता वाली बात एक चुनौती की तरह हमारे सामने खड़ी है. आजाद तो हम सब हैं, पर अपनी आजादी को हमने जातियों, धर्मों, वर्गों के बंधनों से जकड़ रखा है.
अपने संविधान की प्रस्तावना में हमने समानता और बंधुता को रेखांकित किया था, पर आजादी पा लेने के इतने साल बाद भी हम धर्म के आधार पर किसी को कम और किसी को ज्यादा भारतीय मानने का अपराध खुलेआम कर रहे हैं. स्वतंत्न तो हम सब हैं, पर स्वतंत्नता के अधिकारों का बंटवारा आज भी समानता के आधार पर नहीं हो रहा. इन अधिकारों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात कर्तव्यों वाली है.
जब गांधीजी ने हर एक के अपना मालिक स्वयं होने वाली बात कही थी, तो इसका सीधा-सा अर्थ यह था कि आप अपने मालिक स्वयं हैं, इसलिए आपके कहे-किए का दायित्व भी आप पर ही है. यहां भी हम मात खा गए. अपना मालिक स्वयं होना तो हमें भा गया, पर मालिक होने का मतलब कुछ कर्तव्यों का बोझ उठाना भी होता है, इसे समझने या याद रखने की आवश्यकता हमें महसूस नहीं हो रही.
इसी स्थिति से अराजकता जन्मती और पलती है. तीसरी बात संघर्ष की है. संघर्ष की राह फूलों से नहीं, कांटों से भरी होती है. जिस समता और बंधुता को हमने अपने संविधान की आधार-शिला के रूप में स्वीकारा था, वह अपने आप नहीं आ जाती. जैसे सोना तप कर कुंदन बनता है, वैसे ही समता और बंधुता के आधार पर बनने वाले समाज को भी तपना पड़ता है.
यह तपना हमें स्वीकार नहीं, इसलिए हम आसान राहों की तलाश में लगे रहते हैं. आज ये सारी बातें स्वतंत्नता के अमृत महोत्सव के संदर्भ में कहीं अधिक प्रखरता के साथ हमारे सामने आ रही हैं. बचपन में एक कविता पढ़ी थी, जिसमें कहा गया था, ‘अब देश हमारा अपना है/हम ही इसके निर्माता हैं/चाहें तो स्वर्ग बना डालें हम इसके भाग्य-विधाता हैं.’
आज अचानक यह कविता नए-नए अर्थों में सामने आ खड़ी हुई है. देश हमारा है, पर क्या हम अपने देश को जानते-पहचानते हैं? यह जमीन, यह नदियां, यह पहाड़ और जंगल देश की आधी-अधूरी परिभाषा है. पूरा देश तब बनता है जब हम इस देश के हर नागरिक को इससे जोड़कर देखते हैं. वही नागरिक जिसके बारे में गांधीजी ने कहा था कि वह अपने आप में इस देश का मालिक है.
क्या स्थिति बना दी है हमने उस मालिक की? आज हम उस मालिक को पाकिस्तान भेजने की बात करते हैं, ‘गोली मारो’ की भाषा से संबोधित करते हैं. समाज को धर्म या जाति के आधार पर बांटने वाली हर कोशिश को विफल बनाना हमारे अस्तित्व की शर्त है, पर दुर्भाग्य यह है कि यही बांटने-वाली प्रवृत्तियां हमारी राजनीति का भी संचालन कर रही हैं.
जब भी चुनाव आते हैं, सांप्रदायिक भावनाएं फैलाने वाले सक्रिय हो जाते हैं. दुर्भाग्य यह भी है कि अब हमारे यहां चुनाव लगातार होने लगे हैं, इसलिए सांप्रदायिकता फैलाने वाले भी लगातार सक्रिय हैं. कैसे थमे यह सक्रियता? अपने स्वार्थो की सिद्धि में लगे राजनेता इसे थमने नहीं देंगे. पर यदि हमें, हमारे जनतंत्न को, जिंदा रहना है तो सांप्रदायिकता का जहर फैलाने वाली हर कोशिश को नाकामयाब बनाना ही होगा.
यह काम गांधी का वही नागरिक कर सकता है जिसे नौ अगस्त 1942 को उन्होंने ‘अपना मालिक’ कहा था. उस मालिक का, यानी देश के सजग नागरिक का दायित्व है कि वह मालिक होने का फर्ज निभाए. सांप्रदायिकता हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है. इस दुश्मन को सिर उठाने का मौका देने वाला हर व्यक्ति देश का दुश्मन है. हमें अपने भीतर झांक कर देखना होगा, वह दुश्मन कहीं हमारे भीतर भी तो नहीं बैठा है!