ब्लॉग: सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी बीमार क्यों है?

By Amitabh Shrivastava | Published: October 7, 2023 11:43 AM2023-10-07T11:43:30+5:302023-10-07T11:45:41+5:30

यहां तक कि अनेक निजी अस्पताल मरीज के गंभीर होने पर उसे सरकारी अस्पताल में भेज देते हैं। इस स्थिति के चलते सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर दबाव बनना समस्याएं खड़ी होना स्वाभाविक है।

Why is the government health system so sick? | ब्लॉग: सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी बीमार क्यों है?

फोटो क्रेडिट- फाइल फोटो

राज्य के सरकारी अस्पतालों में रोजाना मौत के नए-नए आंकड़े सामने आ रहे हैं और सरकार सैद्धांतिक स्तर पर काम कर अपनी जिम्मेदारी निभा रही है। नांदेड़ के चिकित्सा महाविद्यालय और अस्पताल में 24 घंटे में 34 मरीजों की मौत के बाद सारे राजनेता जागृत कुछ इस तरह से हुए कि लगा सब कुछ पहली बार हुआ है।

चूंकि सरकारी अव्यवस्था की बात है तो उसमें राजनीति का छौंक लगना आवश्यक ही है इसीलिए ढाई साल सरकार चला चुके कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार), शिवसेना(उद्धव गुट) जैसे वर्तमान विपक्षी दलों की सक्रियता और सरकार की विफलता पर ज्ञान बांटना स्वाभाविक है।

यदि सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर नजर दौड़ाई जाए तो राज्य में 25 चिकित्सा महाविद्यालयों से लेकर निचले स्तर पर 1,906 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। राज्य में त्रिस्तरीय चिकित्सा व्यवस्था है, जिसमें पहले स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उपकेंद्र हैं। उसके बाद उपजिला और जिला अस्पताल द्वितीय स्तर पर आते हैं।

तीसरे तथा सर्वोच्च स्तर पर चिकित्सा महाविद्यालयों से जुड़े अस्पताल एवं सुपर स्पेशलिटी आते हैं। उनमें हर प्रकार की सुविधा होने का दावा किया जाता है और वे शहरी इलाकों में ही पाए जाते हैं। सभी की आवश्यकता और जिम्मेदारी अलग-अलग होती है, जिस कारण उनका बजट भी जरूरत अनुसार तय किया जाता है। राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था के आंकड़े जब भी जारी होते हैं, वे करीब साढ़े ग्यारह करोड़ की आबादी के अनुसार दर्शाए जाते हैं। किंतु बढ़ती जनसंख्या की वास्तविकता सरकारी आंकड़ों से बहुत भिन्न है।

वर्ष 2011 में हुई जनगणना के आधार पर यदि आंकड़े वर्तमान व्यवस्था से मिलाए जाते हैं तो वे तब भी कम ही लगते थे और अब तो बहुत कम हैं। मराठवाड़ा के मुख्यालय छत्रपति संभाजीनगर(पूर्व में औरंगाबाद) के चिकित्सा महाविद्यालय में 1177 मरीजों के इलाज के लिए व्यवस्था है. वहां दो से ढाई हजार मरीज इलाज कराने के लिए पहुंचते हैं। दूसरी तरफ शहर के ही सिविल अस्पताल के प्रति जागरुकता-विश्वास और सुविधाओं के अभाव के चलते वहां मरीजों का आना-जाना कम होता है। यह एक उदाहरण है, लेकिन राज्य के अनेक भागों में समान स्थिति है।

कुछ जगह प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, वहां इलाज करने वाले का पता नहीं है और कहीं अस्पताल हैं, वहां सुविधाएं नहीं हैं। यही वजह है कि हर मरीज अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार निजी अस्पतालों की तरफ भागता है और पैसे खत्म होने पर सरकारी अस्पताल की शरण में जाता है। ज्यादातर निजी अस्पताल गंभीर और बिगड़े हुए मामलों के मरीजों के इलाज से बचने की कोशिश करते हैं। यहां तक कि अनेक निजी अस्पताल मरीज के गंभीर होने पर उसे सरकारी अस्पताल में भेज देते हैं। इस स्थिति के चलते सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर दबाव बनना समस्याएं खड़ी होना स्वाभाविक है।

किंतु इससे छुटकारा कैसे मिले, यह सोचना और निराकरण ढूंढ़ना सरकार का काम है जो वह करती नहीं है। भंडारा के अस्पताल में बच्चों के वार्ड में आग लगने के बाद सरकार वहां की समीक्षा करने निकलती है, या अहमदनगर या फिर नासिक के अस्पताल में हादसे के बाद जागती है। वह जांच रिपोर्ट बनाती है कुछ कार्रवाई करती है, लेकिन व्यवस्था की समस्या का स्थायी इलाज नहीं ढूंढ़ पाती है।

साफ है कि सारी राजनीति के बाद असली जिम्मेदारी राज्य सरकार के पाले में ही आती है, जो स्वास्थ्य का बजट पांच फीसदी भी नहीं होने देती है. इसी साल राज्य सरकार ने आम बजट में से स्वास्थ्य बजट को सात फीसदी से घटा दिया, जो कुछ राज्य के बजट का चार प्रतिशत से कम था। उसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, योजनाएं और चिकित्सा शिक्षा का बजट शामिल थे। पिछले साल केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य और योजनाओं के लिए 15860 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे, इस साल 14726 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है।

स्पष्ट है कि सरकार की अपनी ही व्यवस्था के प्रति उपेक्षा लगातार बनी हुई है, जिसके चलते स्वास्थ्य क्षेत्र निजी हाथों में बंधक बनता जा रहा है और गरीब व्यक्ति लाचार सरकारी व्यवस्था में फंसकर दम तोड़ रहा है। काम के दबाव और व्यवस्था के अभाव के चलते चिकित्सक और स्वास्थ्य कर्मचारी हिंसा के शिकार हो रहे हैं। राजनीतिक दबाव तो पहले से ही बना हुआ है।

वर्तमान परिस्थिति में सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को उपहास का पात्र बनने से बचाने के लिए आवश्यक है कि मरीजों के अनुपात में व्यवस्था का निर्धारण किया जाए। चिकित्सकों से लेकर सफाई कर्मचारियों को पुराने आंकड़ों से जोड़ कर देखने की बजाय वस्तुस्थिति को समझा जाए और मानव संसाधन में वृद्धि की जाए। आज अनेक अस्पतालों में आधुनिक मशीनें आ चुकी हैं, लेकिन उन्हें चलाने के लिए प्रशिक्षित कर्मचारी नहीं हैं। कुछ स्थानों पर इमारतें तैयार हैं, किंतु उनमें काम करने के लिए लोग नहीं हैं। कई जगह निर्धारित संख्या से भी कम कर्मचारी हैं। स्थितियां यहां तक हैं कि अस्पतालों में मरीजों के रिश्तेदारों को ही अनेक प्रकार के काम करने पड़ते हैं। इसी तरह दवाइयों की स्थिति है।

वे सभी अस्पतालों में जरूरत से कम हैं। उनके खरीदी बिलों का भुगतान समय पर नहीं होता है। इसके पीछे भी लालफीताशाही के साथ बजट का अभाव है। एक तरफ जहां चिकित्सा बीमा योजनाएं बनती हैं तो उनका लाभ निजी अस्पतालों को मिलता है, वहीं दूसरी ओर उनसे वंचित गरीब समाज जब सरकारी अस्पताल में पहुंचता है तो वहां आर्थिक संकट के चलते उसे सुविधा और इलाज दोनों नहीं मिल पाता है। इस स्थिति के लिए कोई नई सरकार या पुरानी सरकार नहीं बल्कि सभी सरकारें जिम्मेदार हैं। सभी ने स्वास्थ्य क्षेत्र को हमेशा उपेक्षा की नजर से देखा।

कोविड-19 महामारी का काल और उसमें केंद्र से मिली सहायता जोड़ ली जाए तो उसके अलावा किसी सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र की बेहतरी के लिए अतिरिक्त कोई काम नहीं किया। कहने के लिए सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजनाएं काम करती हैं, लेकिन वे निजी अस्पताल के लिए फायदे का सौदा बन चुकी हैं। उनसे सरकारी अस्पतालों को कोई लाभ नहीं मिलता है।

वहां तो बस लोग मरते हैं और अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। कुछ दिन बाद बात आई-गई हो जाती है। ताजा माहौल के भी ठंडे होने का इंतजार है फिर सरकार अपनी जगह और उसकी व्यवस्था अपनी जगह चलने लग जाएगी। बस तारीख बदलेगी, हालात अपने रंग दिखाते जाएंगे। 

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