एक बहुत पुरानी कहावत है. इसका मतलब होता है कि यदि हकीम की जानकारी कम हो तो जान का खतरा बन जाता है. ज्यादातर लोग इस कहावत को जानते हैं और इसका मतलब भी समझते हैं. तो सवाल खड़ा होता है कि यह सब जानते हुए भी अपना इलाज खुद क्यों शुरू कर देते हैं? चिंता की बात यह है कि बिना चिकित्सक से संपर्क किए खुद ही तय कर लेते हैं कि उन्हें ये तकलीफ है तो वो दवाई लेना चाहिए.
किसी एक व्यक्ति को किसी चिकित्सक ने ये दवाई लिखी थी तो दूसरे व्यक्ति की बीमारी भी इस दवाई से ठीक हो जाएगी, यह भ्रम लोगों की सेहत के साथ बहुत बुरा खिलवाड़ कर रहा है. लेकिन हम समझने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष के अपने अंतिम मन की बात कार्यक्रम में एंटीबायोटिक के घटते प्रभाव को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है. सबसे पहले ये समझिए कि ये एंटीबायोटिक होता क्या है? स्कॉटिश वैज्ञानिक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग जीवाणु संवर्धन पर अध्ययन कर रहे थे.
इसी दौरान उन्होंने देखा कि जहां भी पेनिसिलिन फफूंद था, उसके आसपास बैक्टीरिया मर चुके थे या मर रहे थे. तो उन्हें ख्याल आया कि यदि पेनिसिलिन फफूंद से दवा बनाई जाए तो उससे मनुष्य के शरीर पर हमला कर बीमारियां पैदा करने वाले बैक्टीरिया को नष्ट किया जा सकता है. ये 1928 की बात है. इसी अध्ययन के आधार पर पहले एंटीबायोटिक पेनिसिलिन की खोज हुई.
उसके बाद अर्न्स्ट चेन और हावर्ड फ्लोर ने पेनिसिलिन को शुद्ध किया, व्यापक पैमाने पर इसके उत्पादन का तरीका विकसित किया. इस तरह एंटीबायोटिक मानव के लिए जीवन रक्षक के रूप में सामने आया. तीनों वैज्ञानिकों को 1945 में नोबल पुरस्कार से नवाजा गया. हालांकि उस वक्त तक इस दवा को एंटीबायोटिक नहीं कहा जाता था. यह नाम दिया सेलमैन वाक्समैन ने और उन्होंने एक और एंटीबायोटिक स्ट्रेप्टोमाइसिन तथा अन्य एंटीबायोटिक की खोज में उल्लेखनीय भूमिका निभाई. उसके बाद तो अलग-अलग बीमारियों के लिए एंटीबायोटिक तैयार किए जाने लगे और मनुष्य को कई बीमारियों से निजात भी मिली.
सौ साल से भी कम समय में एंटीबायोटिक उपचार का सशक्त माध्यम बन गया. मगर अब बड़ी समस्या पैदा हो गई है क्योंकि एंटीबायोटिक्स का प्रभाव कम होने लगा है और हालात ऐसे ही खराब होते गए तो एक समय शायद ऐसा भी आ सकता है जब बीमारियों पर एंटीबायोटिक्स का प्रभाव ही न हो! हालात इस कदर खराब होने का एक बड़ा कारण यह है कि लोग कोर्स पूरा नहीं करते.
एक-दो दिन एंटीबायोटिक लिया और मर्ज से आराम हो गया तो दवाई छोड़ दी. यदि कुछ बीमारी हुई तो डॉक्टर से पूछे बगैर एंटीबायोटिक का अधूरा डोज ले लिया या एक एंटीबायोटिक की जगह दूसरा एंटीबायोटिक ले लिया, ऐसी स्थिति में शरीर एंटीबायोटिक प्रतिरोधी हो जाता है. वैसे डॉक्टर के पास न जाने का एक बड़ा कारण उपचार का खर्च है. सरकारी अस्पतालों की हालत किसी से छिपी नहीं है और निजी चिकित्सकों के पास जाने का मतलब है अच्छी-खासी फीस और उपचार का महंगा खर्च!
यही कारण है कि लोग जब तक बहुत जरूरी न हो, डॉक्टर के पास जाने से बचते हैं. मगर अपने शरीर को बेहतर रखना है तो डॉक्टर के पास जाना ज्यादा बेहतर है. खुद की सोच के अनुसार दवाई लेना घातक साबित हो सकता है, यह हम सबको समझना होगा. मगर हम समझने को तैयार कहां हैं? उम्मीद करें कि लोग प्रधानमंत्री के मन की बात को गहराई से लेंगे और एंटीबायोटिक का उपयोग कम से कम करेंगे. बिना डॉक्टर की सलाह के बिल्कुल नहीं करेंगे!