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आम आदमी को कंगाल बनाता बीमारियों का महंगा इलाज 

By पंकज चतुर्वेदी | Updated: December 18, 2025 08:23 IST

वित्त वर्ष 2024-25 के अंतरिम बजट के अनुसार स्वास्थ्य क्षेत्र को आवंटित राशि नाममात्र रूप में बढ़ी दिखी, लेकिन मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद यह पिछले वर्ष की तुलना में वास्तव में 3.17 प्रतिशत कम हो गई.

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इश्तेहार और कागजों पर देखें तो प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना अर्थात आयुष्मान कार्ड और सस्ते दाम की जेनेरिक दवाओं से आम लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हुई हैं लेकिन कड़वा सच यह है कि आज भी देश की बड़ी आबादी अपने किसी प्रिय के इलाज की खातिर गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और वर्ल्ड बैंक की एक ताजा संयुक्त रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि दुनियाभर में अरबों लोग अभी भी या तो स्वास्थ्य सेवाओं तक नहीं पहुंच पा रहे हैं या उन्हें वहन नहीं कर पा रहे हैं.

भारत में 30.9 प्रतिशत लोग स्वास्थ्य पर खर्च में वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं. उल्लेखनीय है कि स्वास्थ्य सेवा उपलब्धता के वैश्विक सूचकांक में भारत 100 में से 69 वें स्थान पर है.

बड़े-बड़े आंकड़ों के बीच कड़वी सच्चाई तो यह है कि भारत दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर जीडीपी का सबसे कम हिस्सा खर्च करता है.  तभी मूलभूत सुविधाओं से वंचित अस्पतालों में भारी भीड़ रहती है. जर्जर व्यवस्था से हताश लोग जब निजी अस्पतालों की तरफ रुख करते हैं तो अज्ञानता के आधिक्य और पारदर्शिता के अभाव के चलते वे इस तरह लुटते हैं कि सारी बचत और यहां तक कि जमीन-जायदाद भी गंवा बैठते हैं.

एक अनुमान है कि हर साल डॉक्टरों के फेर में कोई 3.9 करोड़ लोग गरीबी में धंस जाते हैं. स्वास्थ्य बीमा इसका विकल्प है लेकिन निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए उसकी  सालाना किश्त भरना बूते की बात नहीं होती.  

एक रिपोर्ट बताती है कि 71 प्रतिशत भारतीयों का मानना है कि उनके चिकित्सा खर्च में बेतहाशा बढ़ोत्तरी  हुई है. यहां तक कि 19 फीसदी लोगों ने तो इलाज करवाना ही छोड़ दिया या उसमें कुछ विलंब किया.

इस बात के खुलासे होते रहते हैं कि विभिन्न राज्यों में गरीबों को कार्ड देकर निजी अस्पताल में मुफ्त इलाज की अधिकांश योजनाएं निजी अस्पतालों का खजाना भरने का जरिया बनी हैं, जबकि गरीब कंगाल हो रहा है. चूंकि ग्रामीण स्तर पर  डॉक्टर, कंपाउंडर नहीं हैं, जांच की कोई व्यवस्था है नहीं, सो थोड़ा बीमार होने पर भी लोग करीबी शहर की तरफ दौड़ते हैं और इस दुष्चक्र में उनके घर-खेत बिक जाते हैं.

आखिर स्वास्थ्य सेवा को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता क्यों नहीं दी जाती ताकि समाज के सभी वर्गों के लिए किफायती और सुलभ हो? हालांकि सरकारी निवेश महत्वपूर्ण है, लेकिन निजी स्वास्थ्य सेवा में लाभ-संचालित शोषण को रोकने के लिए उन्हें पारदर्शी विनियमन के साथ जोड़ा जाना चाहिए.  

कई रिपोर्टों और समितियों द्वारा स्वास्थ्य बजट को जीडीपी के अनुपात में बढ़ाने की सलाह देने के बाद भी, यह अभी भी 1.3 प्रतिशत पर बना हुआ है- जो दुनिया में सबसे कम दरों में से एक है. वित्त वर्ष 2024-25 के अंतरिम बजट के अनुसार स्वास्थ्य क्षेत्र को आवंटित राशि नाममात्र रूप में बढ़ी दिखी, लेकिन मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद यह पिछले वर्ष की तुलना में वास्तव में 3.17 प्रतिशत कम हो गई.

स्पष्ट रूप से यह उस बात के विरुद्ध था जिसकी नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 ने सिफारिश की थी. नीति में कहा गया था कि स्वास्थ्य पर खर्च जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बजट आवंटन को निरंतर बढ़ना चाहिए और वह भी ‘समयबद्ध तरीके’ से.  

टॅग्स :Medical and HealthभारतIndia
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