रोहित कौशिक का ब्लॉग: फर्जी विश्वविद्यालयों के भंवर में छात्रों को फंसने से बचाना जरूरी
By रोहित कौशिक | Published: May 14, 2022 01:47 PM2022-05-14T13:47:22+5:302022-05-14T13:48:21+5:30
एक के बाद एक सरकारें इसी नीति पर चलती रहीं। सभी सरकारों द्वारा धड़ल्ले से निजी एवं डीम्ड विश्वविद्यालयों को मान्यता दी जाती रही। सरकारें बार-बार ये बताती रहीं कि हमारे देश के हालात को देखते हुए अभी और विश्वविद्यालय खोले जाने की जरूरत है। इस हड़बड़ी में शिक्षा की गुणवत्ता की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया।
कुछ समय पहले यूजीसी ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों व शिक्षा सचिवों को फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची भेजते हुए कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। ये फर्जी विश्वविद्यालय स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई करा रहे हैं। गौरतलब है कि पूरे देश में कई फर्जी विश्वविद्यालय चल रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि ये विश्वविद्यालय हाल ही में पैदा नहीं हुए हैं बल्कि कई वर्षों से चल रहे हैं। दरअसल इन विश्वविद्यालयों की डिग्री वैध नहीं है।
सही जानकारी के अभाव में हजारों छात्र इन फर्जी विश्वविद्यालयों के भंवर में फंस जाते हैं। सवाल यह है कि कई वर्षों से चल रहे इन फर्जी विश्वविद्यालयों पर कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है? अगर ऐसे विश्वविद्यालयों पर पहले ही कार्रवाई हो जाती तो हजारों छात्रों के भविष्य पर मंडराते खतरे को दूर किया जा सकता था। यूजीसी समय-समय पर विद्यार्थियों को जानकारी देने के लिए फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराता रहता है।
सवाल यह है कि जब यूजीसी और सरकार को फर्जी विश्वविद्यालयों की जानकारी है तो उनके संचालकों की धरपकड़ कर इन अवैध विश्वविद्यालयों को बंद क्यों नहीं कराया जाता? फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची प्रकाशित कर देने मात्र से ही यूजीसी और सरकार अपनी जिम्मेदारी से बरी नहीं हो जाते।
आज गली-गली में निजी शिक्षा संस्थानों की बाढ़ आ गई है। इनमें से कुछ शिक्षा संस्थानों के क्रियाकलाप संदिग्ध हैं।
सवाल यह है कि शिक्षा को व्यापार बनाने के लिए जिम्मेदार कौन है? नब्बे के दशक में शुरू हुई उदारीकरण की आंधी ने अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। हालांकि इससे पहले भी कुछ राज्यों में उच्च शिक्षा निजी हाथों में जा चुकी थी लेकिन नब्बे के दशक में व्यापक रूप से पूरे देश में शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने का काम किया गया।
सरकार ने खुद खाओ, खुद कमाओ की नीति के तहत शिक्षा का निजीकरण करते हुए गर्व का अनुभव किया। सरकार की इस नीति से अनेक औद्योगिक घराने शिक्षा के क्षेत्र में कूद पड़े। दरअसल हमारे देश में प्रारंभ से ही शिक्षा प्रदान करने का प्रायोजन धर्मार्थ माना गया है। इसलिए सरकार की नई नीति के तहत शिक्षा प्रदान करते हुए इन सभी को धर्म एवं समाज सेवा का आवरण अपने आप मिल गया। शिक्षा के निजीकरण ने एक नए किस्म के व्यापार को जन्म दिया जिसमें मुनाफा तो पूरा था लेकिन व्यापारी की छवि मुनाफा कमाने वाले की नहीं बल्कि उपकार करने वाले की थी।
एक के बाद एक सरकारें इसी नीति पर चलती रहीं। सभी सरकारों द्वारा धड़ल्ले से निजी एवं डीम्ड विश्वविद्यालयों को मान्यता दी जाती रही। सरकारें बार-बार ये बताती रहीं कि हमारे देश के हालात को देखते हुए अभी और विश्वविद्यालय खोले जाने की जरूरत है। इस हड़बड़ी में शिक्षा की गुणवत्ता की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। दरअसल वर्तमान शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों को यह आश्वासन ही नहीं दे पा रही है कि शिक्षा पर लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी उन्हें सुरक्षित रोजगार मिल पाएगा या नहीं। आज शिक्षा तंत्र में अनेक विसंगतियों ने जन्म ले लिया है।
अंग्रेजों ने भारत में जिस शिक्षा प्रणाली को प्रारंभ किया था उसके पीछे उनकी अपनी विभिन्न आवश्यकताएं थीं। आजादी के बाद कुछ हद तक इस शिक्षा नीति की कमजोरी को दूर करने के प्रयास किए गए लेकिन ये प्रयास पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए। एक बार फिर शिक्षा नीति में परिवर्तन की कोशिशें हो रही हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे नीति-निर्माता शिक्षा नीति में परिवर्तन करने की हड़बड़ाहट में कुछ ऐसे निर्णय ले रहे हैं जो शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को ठेस पहुंचा रहे हैं। अब समय आ गया है कि सरकार निजीकरण की आड़ में पनपे संदिग्ध विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थानों के क्रियाकलापों पर गंभीरता से ध्यान दे ताकि हजारों विद्यार्थियों के भविष्य को अंधकारमय होने से बचाया जा सके।