रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: गुणवत्ता और सस्ता के दो पाटों के बीच पिस रही है स्वदेशी का अवधारणा

By रंगनाथ सिंह | Published: August 16, 2022 01:48 PM2022-08-16T13:48:44+5:302022-08-16T14:18:50+5:30

भारत कम्पनियों द्वारा बनाए गए उत्पादों को 'स्वदेशी' उत्पाद कहते हैं। आजादी से पहले स्वदेशी आन्दोलन की मूल प्रेरणा विदेशी शासन का विरोध करना था। क्या आजादी के बाद भी स्वदेशी का वही अर्थ रह गया है? क्या आजादी के बाद भी स्वदेशी को बढ़ावा देने का जिम्मा केवल उपभोक्ता का है, भारतीय निर्माताओं की भूमिका पर चर्चा क्यों नहीं होती?

rangnath singh blog only moral appeal is not enough to promote Swadeshi in india | रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: गुणवत्ता और सस्ता के दो पाटों के बीच पिस रही है स्वदेशी का अवधारणा

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले से देश को सम्बोधित करते हुए स्वदेशी की विस्तार से चर्चा की। पीएम मोदी पहले भी स्वदेशी पर जोर देते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने 1991 में नागपुर में 'स्वदेशी जागरण मंच' की स्थापना की। यह मंच आम लोगों से अपील करता था कि भारतीय कम्पनियों द्वारा बनाए गए उत्पाद का इस्तेमाल करें। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान चले स्वदेशी आन्दोलन से भी सभी इतिहासप्रेमी परिचित होंगे।

शायद ही ऐसा कोई देशप्रेमी होगा जो स्वदेशी उत्पाद को प्राथमिकता देने की अवधारणा से वैचारिक तौर पर सहमत नहीं होगा लेकिन एक बड़ा चाहते हुए भी स्वदेशी की अवधारणा को अमलीजामा पहनाने में विफल रहता है लेकिन क्यों?

जिस साल स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना हुई वह भारतीय आर्थिक नीति के लिए निर्णायक साल था। सरल शब्दों में कहें तो 1990 के दशक में भारत ने समाजवादी आर्थिक मॉडल को त्यागकर पूँजीवादी आर्थिक मॉडल को अपनाया। विभिन्न दलों के नेतृत्व वाली भारत सरकारों ने पिछले तीन दशकों में न केवल विदेशी कम्पनियों के लिए भारतीय बाजार खोला, बल्कि देश में 'विदेशी निवेश' को बढ़ावा देने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। ऐसे में यह सवाल पूछना लाजिमी है कि आजादी मिलने के 75 साल बाद भी भारत में स्वदेशी का वही अर्थ रह गया है जो ब्रिटिश गुलामी के दौर में था?

इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि स्वदेशी की अवधारणा से भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी लेकिन प्रतिस्पर्धी पूँजीवाद को प्रोत्साहित करने वाली आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देने के साथ-साथ स्वदेशी उत्पादों की पैरवी करना पैरॉडॉक्सिकल प्रतीत होता है। 

स्वदेशी की अवधारणा का प्रचार-प्रसार करने वाले अक्सर इस बात पर ध्यान नहीं देते कि आज के भारत में जो वर्ग आर्थिक रूप से सक्षम है उसके पास विदेशी और स्वदेशी दोनों के बीच चुनाव करने का विकल्प उपलब्ध रहता है। विदेशी उत्पादों का इस्तेमाल करने के पीछे उनका स्टेटस सिम्बल होना भी है लेकिन इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि प्रोडक्ट क्वालिटी (गुणवत्ता) भी इसका बड़ा कारण है। 

आम लोगों से स्वदेशी का इस्तेमाल करते के साथ ही भारतीय कम्पनियों को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि वो प्रतिस्पर्धी कीमत पर विश्व-स्तरीय गुणवत्ता वाले उत्पाद भारतीय खरीदारों को उपलब्ध कराएँ। गुणवत्ता का सवाल उस वर्ग के लिए ज्यादा मायने रखता है जिसकी आमदनी ज्यादा है और जो ज्यादा खर्च कर सकता है। ध्यान रहे कि हम यहाँ इंटरनेशनल फैशन प्रोडक्ट की बात नहीं कर रहे हैं। इंटरनेशनल फैशन प्रोडक्ट की लोकप्रियता में कोलोनियल गुलामी की विरासत का बड़ा योगदान है। हम यहाँ आम रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाले फोन, कार, फ्रिज, एसी जैसे उत्पादों की बात कर रहे हैं।  

भारतीय कम्पनियों को उच्च वर्ग और मध्य वर्ग में लोकप्रिय विदेशी प्रोडक्ट की टक्कर के भारतीय प्रोडक्ट उतारने होंगे ताकि लोग गुणवत्ता से समझौता किए बिना स्वदेशी अपना सकें। वरना भारतीय उच्च वर्ग और मध्यवर्ग स्वदेशी की कसम खाते हुए भी अमेरिका, चीन, कोरिया, जापान, जर्मनी की कम्पनियों के उच्च-गुणवत्ता वाले उत्पाद का इस्तेमाल जारी रखेगा।  भारतीय ग्राहक वर्ग की बहुसंख्या मूलतः विदेशी कम्पनियों के उत्पाद तुलनात्मक रूप से महँगे होने के कारण अफोर्ड नहीं कर पाता इसलिए वह सस्ते उत्पादों को प्राथमिकता देने के लिए बाध्य होता है। 

गुणवत्ता के ऊपर सस्ता को तरजीह देने वाले बड़े ग्राहक वर्ग में भी चीनी निर्माता भारतीय कम्पनियों के लिए खतरा बन चुके हैं। गरीब ग्राहक के लिए कम दाम निर्माता के देश के नाम से ज्यादा अहम होता है। यानी 21वीं सदी में स्वदेशी की अवधारणा गुणवत्ता और सस्ता नामक चक्की के दो पाटों के बीच फँस गयी है। गनीमत यह है कि भारतीय कम्पनियाँ 'सस्ता सामान' वाले वर्ग में प्रतिस्पर्धा देने का प्रयास करती दिखती हैं लेकिन उच्च-गुणवत्ता वाले वर्ग में वह टक्कर देने का प्रयास करती भी मुश्किल से दिखती हैं। नीचे से 90 प्रतिशत आबादी को टारगेट करने वाले मॉडल के दम पर स्वदेशी की अवधारणा मजबूत नहीं हो सकती। भारतीय कम्पनियों को आर्थिक रूप से समृद्ध ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी के बीच स्वदेशी प्रोडक्ट को स्थापित करना होगा तब जाकर स्वदेशी का विचार सही मायनों में 'ट्रिकल डाउन' हो पाएगा। 

अतः प्रधानमंत्री को और स्वदेशी के अन्य सभी समर्थकों को  आम लोगों से स्वदेशी का उपयोग करने की अपील करने के साथ ही भारतीय कम्पनियों से भी अपील करती रहनी चाहिए कि 'विश्व-स्तरीय गुणवत्ता' वाले उत्पाद बेहतर दाम में भारत उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराएँ ताकि उन्हें बी-ग्रेड के प्रोडक्ट खरीदकर देश से प्यार न साबित करना पड़े। 

Web Title: rangnath singh blog only moral appeal is not enough to promote Swadeshi in india

कारोबार से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे