बचपन में, आसमान में हवाई जहाज की आवाज सुनते ही हम बच्चे दौड़कर आंगन या अन्य खुली जगह में पहुंच जाते और कौतूहल के साथ विमान को उड़ते तब तक देखते रहते, जब तक कि वह नजरों से ओझल नहीं हो जाता था.आज विमान यात्रा विलासिता नहीं रह गई है, आवश्यकता बनती जा रही है और अब मध्यमवर्गीयों की पहुंच में भी आ गई है. विमान से यात्रा करने की जिनकी हैसियत नहीं भी है, उन्हें भी हवाई जहाज अब अजूबा नहीं लगते.
लेकिन हाल ही में आई यह खबर जरूर अजूबा लगती है कि एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएआई) हवाई अड्डों पर किफायती जोन अनिवार्य करने जा रहा है ताकि यात्रियों को एयरपोर्ट पर खाने-पीने की चीजें किफायती दरों पर मिल सकें. सस्ते की परिभाषा यह है कि डेढ़-दो सौ रुपए में मिलने वाली चाय अब 50-60 रुपए में मिल सकेगी और खाने का बाकी सामान भी इसी अनुपात में सस्ता मिलेगा.
वे दिन अब दादियों-नानियों के किस्सों की तरह हवा हुए जब रुपयों नहीं बल्कि पैसों के बदले खाने-पीने की चीजें भरपूर मिल जाया करती थीं. अब तो महंगाई ने इतना हलकान कर डाला है कि तुअर दाल के दाम दो सौ रुपए पार कर जाने के बाद डेढ़ सौ रुपए पर आते हैं तो वह सस्ती लगने लगती है. टमाटर-प्याज जैसी सब्जियां जब सौ रुपए से गिरकर साठ-सत्तर रुपए किलो पर आती हैं तो ढेरों खरीद लेने का मन करता है कि क्या पता फिर इतनी ‘सस्ती’ मिलें, न मिलें!
ज्यादा महंगा करके थोड़ा सस्ता करने के मनोविज्ञान का फायदा सरकारें भी उठाती हैं. चुनावों के बाद पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान पर पहुंचा दिए जाते हैं और पांच साल बाद, अगले चुनावों के पहले जब उन्हें थोड़ा सस्ता कर दिया जाता है तो जनता को थोड़ी देर के लिए वह सचमुच ही सस्ता लगने लगता है (और तब तक तो चुनाव निपट जाता है)! मजे की बात यह है कि सरकारों ने अब दरें बढ़ाने की ट्रिक्स भी सीख ली हैं. पहले प्राय: वे एकबारगी में ही ज्यादा महंगाई बढ़ाकर जनता के रोष का शिकार बन जाती थीं. अब धीरे-धीरे कई चरणों में बढ़ाती हैं, ताकि जनता का आक्रोश एकदम से न फट पड़े.
कहानी है कि एक बार एक मेंढक स्टोव पर चढ़े पानी के एक बर्तन में गिर पड़ा था. पानी उसे हल्का गर्म तो लगा लेकिन वह बाहर कूदने के बजाय अपने शरीर की ऊर्जा बढ़े हुए तापमान से तालमेल बैठाने में लगाने लगा. ऐसा करते-करते जब पानी इतना गर्म हो गया कि सहनशक्ति जवाब देने लगी तो उसने बाहर छलांग लगाने की सोची. लेकिन तब तक उसमें इतनी शक्ति ही नहीं बची थी और वह उसी में मर गया.
जनता भी शायद इसी तरह हालात के साथ खुद को समायोजित करने की कोशिश करती है. आम दुकानों में आठ-दस रुपए में चाय पीने वाले आम आदमी को हो सकता है एयरपोर्ट में 50-60 रु. में मिलने वाली ‘सस्ती’ चाय पीना महंगा लगे, लेकिन जब उसे पता चलता है कि वही चाय कभी डेढ़-दो सौ रु. में मिला करती थी, तो वह सचमुच ही सस्ती लगने लगती है! मल्टीप्लेक्सों के खानपान की भी यही हालत है.
गांवों में जिस चने-मुरमुरे और लावा (पॉपकॉर्न का देसी नाम) को कोई पूछता तक नहीं, मल्टीप्लेक्स में 50-60 रु. में खरीदने पर उनका स्वाद कुछ अनोखा महसूस होता है. मजे की बात यह है कि अगर आप इस सम्मोहन में न फंसें और पैसे बचाने के लिए घर से कुछ लेकर जाना चाहें तो वे आपको बाहर से खाना-पीना लाने की इजाजत भी नहीं देते, वरना उनकी ‘दुकान’ चलेगी कैसे! आप बस जेब में रुपए लेकर जा सकते हैं और उसकी विनिमय दर तय करने का अधिकार भी सिर्फ उन्हें है!