बचपन में दोस्तों के बीच बहस के दौरान हम अक्सर एक वाक्य बोला करते थे- ‘अगर मेरी बात गलत सिद्ध हो तो मेरा नाम बदल देना’. हम नाम की दुहाई क्यों देते थे, पता नहीं, पर इतना अवश्य पता है कि हमारी मित्र-मंडली में नाम बदलने वाली इस बात का महत्व बहुत माना जाता था. नाम बदलने वाली यह बात आज अचानक ‘मनरेगा’ के नाम बदलने की सरकार की घोषणा के संदर्भ में याद आ रही है. याद यह भी आ रहा है कि अंग्रेजी के महान साहित्यकार शेक्सपियर ने कभी कहा था, ‘नाम में क्या रखा है, गुलाब को कोई भी नाम दे दें, उसकी गंध तो नाम बदलने से नहीं बदलेगी’.
शेक्सपियर की यह बात नाम के संदर्भ में अक्सर दुहराई जाती है. लेकिन यदि मामला ‘मनरेगा’ जैसी विकास-योजना का हो तो बात सिर्फ नाम बदलने तक सीमित नहीं रह जाती, बात नाम बदलने की नीति से आगे बढ़कर नीयत तक पहुंच जाती है. कांग्रेस लगातार यह आरोप लगाती रही है कि उसकी योजनाओं के नाम बदलकर वर्तमान सरकार यश लूटना चाहती है.
इस नीति पर भी चर्चा हो सकती है, पर आज आवश्यकता यह सोचने की है कि योजनाओं, जगहों, नगरों आदि के नाम बदलकर की जाने वाली राजनीति का औचित्य क्या है? पिछले दस-बारह साल की ही बात करें तो पता चलता है कि न जाने कितनी जगहों, सड़कों आदि के नाम बदलकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश होती रही है.
और यह लाभ उठाने का काम सिर्फ भाजपा ही नहीं कर रही. अलग-अलग समय पर अलग-अलग सरकारें ऐसा करती रही हैं, और अब तो जैसे यह परंपरा बन गई है. राजधानी दिल्ली में न जाने कितनी सड़कों के नाम बदल दिए गए हैं. पर समझने की बात यह है कि हर बदलाव प्रगति नहीं होता.
राजपथ को कर्तव्य पथ कर देने मात्र से इस पथ पर चलने वालों की मानसिकता नहीं बदल जाएगी. मानसिकता का परिष्कार करने के लिए समाज की सोच को बदलने की आवश्यकता है. अतार्किक परिवर्तनों से बात नहीं बनती. ठोस परिवर्तनों की आवश्यकता है.
सांस्कृतिक नवीनीकरण का तर्क देकर अथवा इतिहास की कथित भूलों की दुहाई देकर बदले जाने वाले नाम भी कुल मिलाकर संकुचित सोच को ही दरसाते हैं. आवश्यकता इस सोच से उबरने की है. यह भी समझना जरूरी है कि सिर्फ नाम बदलने से स्थितियां नहीं बदल जातीं.