अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: अब नियंत्रकों और नियामकों के पाले में है गेंद
By अभय कुमार दुबे | Published: February 8, 2023 03:38 PM2023-02-08T15:38:05+5:302023-02-08T15:40:01+5:30
2008 में जब अमेरिकी वित्तीय बाजारों में संकट आया, तो भारत कमोबेश उससे अछूता रह गया। आज की स्थिति यह है कि प्रत्येक भारतीय पूंजीपति घराना विश्व के पूंजी बाजारों के साथ गहराई के साथ जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि वह भारत से ही नहीं दुनिया भर से पूंजी उठा पाता है। दूसरे सभी घरानों समेत अदानी समूह ने भी ऐसा ही किया है।
वर्ष 2008 में जब अमेरिका के वित्तीय बाजारों में संकट की शुरुआत हुई थी, उस समय वहां सरकार द्वारा नियुक्त पूंजी के नियंत्रकों और नियामकों ने उससे जुड़ी हुई समस्याओं को नजरअंदाज किया था। नतीजा यह निकला कि यह संकट दुनिया के दूसरे बाजारों में भी फैलता चला गया। आर्थिक विशेषज्ञों को लग रहा है कि आज कमोबेश ऐसा ही नजारा भारत के बाजार नियंत्रकों और नियामकों के सामने है। चाहे सेबी हो या फ्रॉड का इन्वेस्टिगेशन करने वाली संस्था हो, गेंद पूरी तरह से इन्हीं के पाले में है।
हिंडनबर्ग को जो करना था, कर दिया है। अदानी ग्रुप का जो होना है, वह भविष्य ही बताएगा। लेकिन इस वित्तीय भूकंप के मर्म में हो रहे घटनाक्रम और उसके इतिहास पर से पर्दा उठाने की जिम्मेदारी इन्हीं संस्थाओं की है। दांव पर केवल एक औद्योगिक समूह ही नहीं है बल्कि इस भूमंडलीकृत आर्थिक निजाम में भारतीय अर्थव्यवस्था का दूरगामी भविष्य भी दांव पर लगा है।
यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी और विविध है। किसी एक घराने के उत्थान और पतन से वह बुनियादी रूप से प्रभावित नहीं होती। लेकिन इसका पहला असर दिखने लगा है। एक फरवरी को जब भारत की वित्त मंत्री संसद में केंद्रीय बजट पेश कर रही थीं, ठीक उसी समय एक अमेरिकी संस्था हिंडनबर्ग की रपट के प्रभाव में आकर हमारा स्टॉक एक्सचेंज चाहते हुए भी बजट पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने में असमर्थ दिख रहा था। हिंडनबर्ग रपट का ताल्लुक किसी भी तरह से बजट के साथ नहीं था। उसमें भारतीय अर्थव्यवस्था के खिलाफ एक लफ्ज भी नहीं कहा गया था। बावजूद इसके, स्टॉक एक्सचेंज बजट से उत्साहित होकर केवल शुरुआत में ही थोड़ा उछला, और फिर अदानी समूह के शेयरों की जबर्दस्त बिकवाली के दबाव में उसका सूचकांक धड़ाम से गिर गया।
यह प्रकरण हमें नए सिरे से सोचने पर मजबूर करता है कि जिस युग को हम भूमंडलीकरण का युग या बाजारवाद का जमाना कहते हैं, उसमें पूंजी का किरदार किस कदर बदल चुका है। औद्योगिक क्रांति से पहले जो पूंजी हम लोगों के आर्थिक जीवन को संचालित करती थी, वह मुख्य तौर पर व्यापारिक पूंजी या मर्चेंट कैपिटल थी। अठारहवीं सदी के बाद इस पूंजी को पीछे धकेल कर जिस पूंजी ने नियंत्रणकारी भूमिका प्राप्त कर ली, वह औद्योगिक पूंजी थी। लेकिन, 1990 में जिस भूमंडलीकरण का आगाज हुआ, उसने आर्थिक दुनिया में एक नई ताकत का आधिपत्य स्थापित किया। यह थी वित्तीय पूंजी या फाइनेंस कैपिटल की ताकत। इस कैपिटल का न कोई देश था, न राष्ट्र था, न कोई सरकार थी, न कोई संस्कृति थी। उसके लिए न कोई दिन था, न रात थी। वह सीमाओं के आर-पार नई संचार प्रौद्योगिकी के पुष्पक विमान पर सवार होकर बिना एक पल आराम किए निरंतर गतिशील रहने लगी। यही कारण है कि जब अदानी समूह ने हिंडनबर्ग रपट के जवाब में दावा किया कि उस पर किया गया हमला दरअसल भारत पर हमला है, तो इस पूंजी ने फुसफुसा कर कहा कि मेरी हुकूमत में ‘नेशनलिज्म’ नहीं बल्कि ‘रेशनलिज्म’ का रुतबा चलता है।
अदानी समूह और उसके समर्थकों की ऊंची आवाज वित्तीय पूंजी की इस फुसफुसाहट के नीचे दब गई। वे जिस राष्ट्रवाद की नुमाइंदगी करने की कोशिश कर रहे थे, वह हिंडनबर्ग की तर्कपरक जांच-पड़ताल के सामने मुरझा गया। उनके शेयरों का गिरना जारी रहा और भारत का स्टॉक एक्सचेंज केंद्रीय बजट पर चाहते हुए भी अपनी सकारात्मक अनुक्रिया करने से वंचित रह गया। जिस समय अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के दम पर भारत के उद्योगपति घराने प्रगति की उछालें भरते हुए हमारे राष्ट्रवादी सीने को गर्व से फुला रहे होते हैं, उस समय हमें याद नहीं रहता कि अगर किसी वजह से यह कड़ी भंग हुई तो सबसे पहले जिसकी हवा निकलेगी वह यही राष्ट्रवादी सीना होगा।
हिंडनबर्ग रपट ने यही भूमिका अदा की है। अदानी की प्रगति का इतिहास असाधारण रहा है. जब उन्होंने बीस हजार करोड़ का एफपीओ (अतिरिक्त शेयर बेच कर पूंजी उगाहने का प्रस्ताव) जारी किया था, तो सबका यही मानना था कि यह उनके बायें हाथ का खेल होगा। लेकिन उन्हें उनके पैसे वापस करने पड़े हैं जिन्होंने एफपीओ में रकम लगाई थी। अगर हम देखना चाहें तो इस मुकाम पर हम अपने आर्थिक भविष्य की तस्वीर के कुछ पहलुओं को नए सिरे से देख-समझ सकते हैं। मसलन, 1990 में भूमंडलीकरण की शुरुआत जरूर हो गई थी, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ने में बहुत लंबा समय लगा। इसीलिए 2008 में जब अमेरिकी वित्तीय बाजारों में संकट आया, तो भारत कमोबेश उससे अछूता रह गया।
आज की स्थिति यह है कि प्रत्येक भारतीय पूंजीपति घराना विश्व के पूंजी बाजारों के साथ गहराई के साथ जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि वह भारत से ही नहीं दुनिया भर से पूंजी उठा पाता है। दूसरे सभी घरानों समेत अदानी समूह ने भी ऐसा ही किया है। लेकिन इस प्रक्रिया में भारतीय पूंजीवाद के ये बड़े-बड़े प्रतिनिधि वित्तीय पूंजी के वैश्विक निजाम के विभिन्न मुख्यालयों के बीच की कड़ी बन गए हैं। अगर कोई एक कड़ी गड़बड़ाती है तो उस भारतीय घराने के विदेशी बॉन्ड्स की गिरी हुई साख का असर भारत के वित्तीय बाजार पर पड़ना तय है।