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बिहार के चित्तौड़गढ़ में दो परिवारों का ही रहा दबदबा, अब तक यहां का कोई सांसद नहीं बन सका केंद्र में मंत्री

By एस पी सिन्हा | Updated: March 10, 2024 16:33 IST

यहां छठ पर्व पर काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। इसके अलावा यहां अमजहर शरीफ भी पर्यटन का आकर्षण का केंद्र है। मगध की संस्कृति का केंद्र बताया जाने वाला यह जिला राजपूत बहुल होने से बिहार का चित्तौड़गढ़ भी कहा जाता है।

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ठळक मुद्देबिहार में औरंगाबाद लोकसभा सीट की चर्चा हर चुनाव में रहती हैइस शहर का नाम मुगल शासक औरंगजेब के नाम पर रखा गया था चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो राजपूत प्रत्याशी ही जीत हासिल करते आए हैं

पटना: बिहार में औरंगाबाद लोकसभा सीट की चर्चा हर चुनाव में रहती है। चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो राजपूत प्रत्याशी ही जीत हासिल करते आए हैं। देव सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध औरंगाबाद दक्षिण बिहार में ग्रैंड ट्रंक रोड और नेशनल हाईवे दोनों से सटा हुआ है। देव सूर्य मंदिर में हजारों की संख्या में श्रद्धालु पूजा करने के लिए आते हैं। यहां छठ पर्व पर काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। इसके अलावा यहां अमजहर शरीफ भी पर्यटन का आकर्षण का केंद्र है। मगध की संस्कृति का केंद्र बताया जाने वाला यह जिला राजपूत बहुल होने से बिहार का चित्तौड़गढ़ भी कहा जाता है।

हालांकि, इस शहर का नाम मुगल शासक औरंगजेब के नाम पर रखा गया था। अदरी नदी के तट पर स्थित इस शहर को पहले नौरंगा कहा जाता था। बाद में इसका नाम औरंगाबाद हो गया। 26 जनवरी 1973 को औरंगाबाद मगध प्रमंडल के गया जिले से हटकर स्‍वतंत्र जिला बना। जीटी रोड एवं औरंगाबाद-पटना रोड जिले की लाइफलाइन मानी जाती हैं। औरंगाबाद लोकसभा सीट के साथ एक दिलचस्प बात यह भी है कि 1952 से अब तक यहां के सांसद केंद्र में मंत्री नहीं बनाए जा सके।

औरंगाबाद सीट के जातीय समीकरण की बात करें तो राजपूतों की आबादी लगभग दो लाख है। वहीं, डेढ़ लाख की जनसंख्या के साथ यादव दूसरे नंबर पर हैं। इसके बाद अल्पसंख्यक मतदाताओं की संख्या 1.25 लाख है। कुशवाहा जाति के लोगों की संख्या भी करीब 1.25 लाख। 

इसके बाद भूमिहारों की जनसंख्या एक लाख और एससी और महादलितों की आबादी लगभग 19 फीसदी यानी दो लाख से भी ज्यादा है। इनका वोट भी जीत के लिए काफी असर रखता है। 1952 से अब तक सिर्फ राजपूत जाति के उम्मीदवार ही जीतते हैं। खास बात यह भी है कि औरंगाबाद लोकसभा सीट राजपूत जाति में भी बस दो परिवारों का ही दबदबा रहा है।

राजपूतों का गढ़ माने जाने वाली इस सीट पर पिछला यानी कि 2019 का चुनाव भाजपा के नेता सुशील कुमार सिंह ने जीता था। इस चुनाव में सुशील कुमार को 45.8 फीसदी वोट मिले थे। वहीं, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के उपेन्द्र प्रसाद 38.1 फीसदी वोट पाकर दूसरे नंबर पर रहे थे। यहां से बहुजन समाज पार्टी ने भी अपना प्रत्याशी चुनाव में उतारा था, जिन्हें महज 3.6 फीसदी मत मिले थे। सुशील कुमार सिंह को 431,541 मत प्राप्त हुए थे। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के उपेंद्र प्रसाद को 358,934 और नरेश यादव को 34,033 वोट मिले थे। 

निर्दलीय प्रत्याशी धीरेंद्र कुमार सिंह 25,030 वोट पाकर चौथे नंबर पर रहे थे। अखिल हिंद फॉरवर्ड ब्लॉक के धर्मेंद्र कुमार को भी 16,683 वोट मिले थे। इस सीट पर कुल 9 प्रत्याशी चुनावी मैदान में थे।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह और रामनरेश सिंह का परिवार ही औरंगाबाद लोकसभा में हमेशा आमने-सामने की टक्कर में रहे। सत्येंद्र नारायण सिंह के परिवार का औरंगाबाद लोकसभा सीट पर लंबे समय तक बेरोकटोक कब्जा रहा है। निखिल कुमार और उनकी पत्नी श्यामा सिंह भी कांग्रेस की ओर से यहां से सांसद चुने गए। निखिल कुमार राज्यपाल भी बने।

आजादी के बाद 1952 के पहले चुनाव में औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र से सत्येंद्र नारायण सिंह जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्होंने औरंगाबाद सीट से 7 बार लोकसभा चुनाव जीता। उनके परिवार से 1999 में कांग्रेस की श्यामा सिंह, फिर 2004 में निखिल कुमार जीते। 

तीन चुनावों में ये सीट जनता दल के हाथ में गई। 1998 में समता पार्टी के सुशील कुमार सिंह इस सीट से जीतने में कामयाब रहे। 2009 के चुनाव में सुशील कुमार सिंह ने जदयू, फिर 2014 और 2019 में भाजपा के टिकट पर इस सीट से जीत हासिल की। लोकसभा चुनाव 2024 में एनडीए में इस सीट पर भाजपा का दावा है।

कुटुम्बा, औरंगाबाद, रफीगंज, गुरुआ, इमामगंज और टिकारी विधानसभा क्षेत्रों को मिलाकर औरंगाबाद लोकसभा सीट बनाया गया है। दो सीटें कुटुम्बा और इमामगंज रिजर्व सीटें हैं। औरंगाबाद लोकसभा सीट पर मतदाताओं की कुल संख्या 17,37,821 है। इनमें पुरुष मतदाता 9,15,930 और महिला मतदाताओं की संख्या 8,21,793 है। इसके अलावा थर्ड जेंडर के 98 मतदाता हैं।

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