यहां मौजूद है धरती का पहला शिवलिंग, जानिए कैसे शुरू हुई इसे पूजने की परंपरा और क्या है कहानी

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 6, 2020 04:12 PM2020-02-06T16:12:36+5:302020-02-07T10:59:04+5:30

जागेश्वर धाम में छोटे-बड़े 100 से ज्यादा मंदिर हैं और इसलिए ये जगह अपनी वास्तुकला के लिए भी काफी विख्यात है। इनमें 4-5 मंदिर बेहद प्रमुख हैं जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं।

Shiv Jageshwar dham Uttarakhand where first shiv ling of lord shiva puja started | यहां मौजूद है धरती का पहला शिवलिंग, जानिए कैसे शुरू हुई इसे पूजने की परंपरा और क्या है कहानी

जागेश्वर धाम में है धरती का पहला शिवलिंग (प्रतीकात्मक फोटो)

Highlightsदेवभूमि उत्तराखंड में मौजूद है धरती के पहले शिवलिंग से जुड़ा राजजागेश्वर धाम में सबसे पहले शुरू हुई शिवलिंग को पूजने की परंपरा, सप्त ऋषियों से जुड़ी है पौराणिक कथा

Maha Shivratri: भगवान शिव को समर्पित ऐसे को इस धरती पर कई तीर्थस्थल हैं लेकिन उत्तराखंड में बसे जागेश्वर धाम मंदिर का महत्व अलग ही है। यहां मंदिरों का एक समूह है और ऐसी मान्यता है कि यह जगह भगवान शिव की तपोस्थली भी रही है। इस जगह का उल्लेख पुराणों और ग्रंथों में मिलता है। जागेश्वर को उत्तराखंड का पांचवां धाम भी कहा जाता है। यहां छोटे-बड़े कुल 125 मंदिरों का समूह है।

जागेश्वर धाम से शुरू हुई शिवलिंग को पूजने की परंपरा

जागेश्वर धाम देवों की नगरी उत्तराखंड में अल्मोड़ा से पूर्वोत्तर दिशा में पिथौरागढ़ मार्ग पर स्थित है। यहां छोटे-बड़े 100 से ज्यादा मंदिर हैं और इसलिए ये जगह अपनी वास्तुकला के लिए भी काफी विख्यात है। ये मंदिर छोटे-बड़े पत्थरों से निर्मित हैं और इसलिए इन्हें देखना एक अलग ही अनुभव है। इनमें 4-5 मंदिर बेहद प्रमुख हैं जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं।

इस जगह के बारे में मान्यता है कि यहीं से लिंग के रूप में भगवान शिव को पूजने की परंपरा शुरू हुई। मान्यता है कि सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी और उसी के बाद लिंग रूप में भगवान शिव का पूजन आरंभ हुआ। एक दिलचस्प बात ये भी है कि यहां भगवान शिव की पूजा बाल या तरुण रूप में की जाती है।

जागेश्वर धाम में सभी बड़े देवी-देवताओं के मंदिर

यहां सभी बड़े देवी-देवताओं के मंदिर मौजूद हैं। यहां दो मंदिर सबसे विशेष हैं। इसमें पहला 'शिव' का और दूसरा शिव के 'महामृत्युंजय रूप' का मंदिर शामिल है। इन मंदिरों का निर्माण 8वीं ओर 10वीं शताब्दी के आसपास होने की बात कही जाती है। हालांकि इसके प्रमाण नहीं मिलते कि किसने इन्हें बनवाया। वैसे ज्यादातर स्थानीय लोग मानते हैं कि मंदिर को पांडवों ने बनवाया था।

जागेश्वर धाम से जुड़ी पौराणिक कथा

एक पौराणिक कथा के अनुसार प्रजापति दक्ष के यज्ञ के दौरान माता सती के आत्मदाह से दुखी होने के बाद भगवान शिव ने इन जगलों में भस्म लपेट कर लंबे समय तक तप किया। इन्हीं जंगलों में तब आदि सप्त ऋषि अपनी पत्नियों समेत कुटिया बनाकर रहते थे। भगवान शिव एक बार दिगंबर अवस्था में यहां लीन थे। उसी दौरान सप्त ऋषियों की पत्नियां वहां लकड़ी, फूल आदि लेने के लिए आ पहुंचीं।

उनकी नजर दिगंबर शिव पर पड़ी तो उन्हें देख वे उन पर मोहित होती चली गईं। शिव तब तपस्या और ध्यान में लीन थे इसलिए उनका ध्यान इन सब बातों की ओर नहीं गया। दूसरी ओर ऋषियों की पत्नियां काम के अधीन होकर वहीं मूर्छित होकर गिरती गईं। बहुत देर तक सभी ऋषि पत्नियां कुटिया नहीं लौटीं तो सप्तऋषि उन्हें खोजने निकल पड़े।यहां पहुंचकर उन्होंने देखा शिव समाधि में लीन हैं और उनकी पत्नियां वहां मूर्छित होकर गिरी हुई हैं।

ऋषियों को लगा कि शिव ने उनकी पत्नियों के साथ व्यभिचार किया है। वे क्रोध में आ गये और शिव क शाप दिया कि उनका लिंग शरीर से अलग होकर गिर जाएगा। भगवान शिव ने तब अपनी आंखें खोली। उन्होंने ऋषियों से कहा कि 'आप लोगों ने संदेह में आकर मुझे शाप दिया है इसलिए मैं इसका विरोध नहीं करूंगा। तुम सभी सप्त ऋषि भी तारों के साथ अनंत काल तक आकाश में लटके रहोगे।'

मान्यता है कि शिव के लिंग के शरीर से अलग होते ही पूरी सृष्टि में कोहराम मच गया। ब्रह्मदेव ने इसके बाद संसार को बचाने के लिए ऋषियों से मां पार्वती की उपासना करने के लिए कहा। पार्वती ही शिव के इस तेज को धारण कर सकती थीं। ऋषियों ने इसके बाद उपासना की। माता पार्वती ने तब योनी रूप में प्रकट होकर शिवलिंग को धारण किया।

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