छठ के साथ बिहार के मिथिला में सामा चकेवा पूजा को लेकर भी तैयारी शुरू, क्यों खेलते हैं सामा-चकेवा और क्या है इसकी कथा, जानिए
By एस पी सिन्हा | Published: November 1, 2019 07:59 PM2019-11-01T19:59:36+5:302019-11-01T19:59:36+5:30
सामा चकेवा उत्सव कार्तिक शुक्ल पक्ष से सात दिन बाद शुरू होता है. आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है और नौवें दिन बहने अपने भाइयों को धान की नयी फसल की चुडा एवं दही खिला कर सामा चकेवा के मूर्तियों को तालाबों में विसर्जित कर देते हैं.
बिहार में इस समय छठ पूजा की धुन तो है हीं, लेकिन मिथिला के इलाके में एक और महत्वपूर्ण पर्व सामा चकेवा को लेकर भी उत्साह है. कार्तिक पूर्णिमा को मनाए जाने वाले सामा चकेवा पर्व को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में तैयारी शुरू हो गई है. छठ पर्व से ही मिट्टी से कई तरह की मूर्तियां बनाने के साथ शाम में लोकगीत गाये जाने लगे हैं.
मिथिला में छठ व्रत के बाद सामा चकेबा खेला जाता है, मिथिला की ललनाएं रात भर साम चकेबा खेलती है और अपने भाई के सुखी जीवन की कामना करती है. सामा चकेवा बिहार में मैथिली भाषी लोगों का यह एक प्रसिद्ध त्यौहार है.
मिथिला तथा कोसी के क्षेत्र में भातृ द्वितीया, रक्षाबंधन की तरह ही भाई बहन के प्रेम के प्रतीक लोक पर्व सामा चकेवा प्रचलित है. अपने-अपने सुविधा के अनुसार दीपावली व छठ के खरना के दिन से मिट्टी से सामा चकेवा सहित अन्य प्रतिमाएं बनाकर इसकी शुरुआत की जाती है.
भाई-बहन को समर्पित है ये त्योहार
भाई–बहन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध को दर्शाने वाला यह त्योहार नवम्बर माह के शुरू होने के साथ मनाया जाता है. सामा चकेवा का उत्सव पारंपरिक लोकगीतों से जुडा है. यह उत्सव मिथिला के प्रसिद्ध संस्कृति और कला का एक अंग है जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त सभी बाधाओं को तोडता है.
यह उत्सव कार्तिक शुक्ल पक्ष से सात दिन बाद शुरू होता है. आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है और नौवें दिन बहने अपने भाइयों को धान की नयी फसल की चुडा एवं दही खिला कर सामा चकेवा के मूर्तियों को तालाबों में विसर्जित कर देते हैं. गांवों में तो इसे जोते हुए खेतों में विसर्जित किया जाता है.
सामा, चकेवा, टिहुली, कचबचिया, चिरौंता, हंस, सत भैंया, चुगला, बृंदावन, पेटार सहित कई अन्य प्रतिमाएं बनाई जाती है. देवोत्थान एकादशी की रात से प्रत्येक आंगन में नियमित रूप से महिलाएं पहले समदाउन, ब्राह्मण गोसाउनि, भजन सहित अन्य गीत गाकर बनायी गयी मूर्तियों को ओस चटाती है.
बताया जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा की रात मिट्टी के बने पेटार में सन्देश स्वरूप दही-चूडा भर सभी बहनें सामा चकेबा को अपने-अपने भाई के ठेहुना से फोडवा कर श्रद्धा पूर्वक अपने खोइछा में लेती है. फिर बेटी के द्विरागमन की तरह समदाउन गाते हुए विसर्जन के लिए समूह में घर से निकलती है. नदी, तालाब के किनारे या जुताई किया हुआ खेत में चुगला के मुंह मे आग लगाया जाता है फिर मिट्टी तथा खर से बनाए बृंदावन मे आग लगाकर बुझाती है. इसके बाद सामा चकेवा सहित अन्य के पुन: आने की कामना करते विसर्जन किया जाता है.
क्या है सामा चकेवा की कथा
मान्यता है कि सामा भगवान कृष्ण की बेटी थी. अपने अन्य सहयोगी के साथ वह प्रत्येक दिन विचरण करने वृंदावन के जंगल मे जाती थी. सामा के वृंदावन के जंगल मे एक तपस्वी के साथ गलत सम्बन्ध रहने का झूठा आरोप लगाते चुगला द्वारा चुपके से इसकी शिकायत पिता श्रीकृष्ण से किया गया. आरोप कि सत्यता की जांच किए बगैर श्रीकृष्ण ने अपने पुत्री को पक्षी के रूप में रहने की शाप दे दिया.
इससे दुखी उसके पति चरूवकय तपस्या कर खुद भी चकेवा पक्षी के रूप में बन सामा के साथ वृंदावन के जंगल में रहने लगा. इस घटना की जानकारी मिलने के बाद सामा के भाई ने भी अपने बहन को पुन: मनुष्य के रूप में वापस लौटाने के लिए श्रीकृष्ण की तपस्या की. तभी से बहनों द्वारा अपने-अपने भाई के दीर्घायु होने की कामना लिए सामा चकेवा पर्व मनाया जाता है.
इस पर्व में शाम होने पर युवा महिलायें अपनी संगी सहेलियों की टोली में मैथिली लोकगीत गाती हुईं अपने-अपने घरों से बाहर निकलती हैं. उनके हाथों में बाँस की बनी हुई टोकरियाँ रहती हैं. टोकरियों में मिट्टी से बनी हुई सामा-चकेवा की मूर्तियाँ, पक्षियों की मूर्तियाँ एवं चुगिला की मूर्तियाँ रखी जाती हैं. मैथिली भाषा में जो चुगलखोरी करता है उसे चुगिला कहा जाता है.
मिथिला में लोगों का मानना है कि चुगिला ने ही कृष्ण से सामा के बारे में चुगलखोरी की थी. सामा खेलते समय महिलायें मैथिली लोक गीत गा कर आपस में हंसी–मजाक भी करती हैं. भाभी ननद से और ननद भाभी से लोकगीत की ही भाषा में ही मजाक करती हैं. अंत में चुगलखोर चुगिला का मुंह जलाया जाता है और सभी महिलायें पुनः लोकगीत गाती हुई अपने – अपने घर वापस आ जाती हैं.
ऐसा आठ दिनों तक चलता रहता है. यह सामा-चकेवा का उत्सव मिथिलांचल में भाई -बहन का जो सम्बन्ध है उसे दर्शाता है. यह उत्सव यह भी इंगित करता है कि सर्द दिनों में हिमालय से रंग–बिरंग के पक्षियां मिथिलांचल के मैदानी भागों में आ जाते हैं.
हालांकि बदलते समय के साथ इसमें भी बदलाव देखा जाने लगा है. पहले महिलायें अपने हाथ से ही मिट्टी की सामा चकेवा बनाती थीं. विभिन्न रंगों से उसे सवांरती थी. लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता है. अब बाजार में रंग–बिरंग के रेडीमेड मिट्टी से बनी हुई सामा चकेवा की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं. महिलायें इसे ही खरीदकर अपने घर ले आती हैं.