बिहार में महागठबंधन का खेल बिगाड़ सकती है वाम मोर्चा, अकेले चुनाव लड़ने का मूड बना रहे हैं वामपंथी दल

By एस पी सिन्हा | Published: March 16, 2019 07:32 PM2019-03-16T19:32:00+5:302019-03-16T19:32:00+5:30

वैसे पिछले लोकसभा चुनाव में वाम दलों में एकता नहीं बनी थी। लेकिन इस चुनाव में वाम दल साथ हैं और ऐसे में उनकी ताकत में इजाफा को भी नकारा नहीं जा सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाकपा-माले ने जहां 23 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, वहीं माकपा छह और भाकपा ने दो सीटों पर अपने-अपने प्रत्याशी चुनाव में उतारे थे।

Lok Sabha election 2019 Bihar Mahagathbandhan may destroy due to left in bihar | बिहार में महागठबंधन का खेल बिगाड़ सकती है वाम मोर्चा, अकेले चुनाव लड़ने का मूड बना रहे हैं वामपंथी दल

बिहार में महागठबंधन का खेल बिगाड़ सकती है वाम मोर्चा, अकेले चुनाव लड़ने का मूड बना रहे हैं वामपंथी दल

बिहार में महागठबंधन का गांठ अभी तक खुलता नजर नही आ रहा है। हालात ये हैं कि सभी अपनी डफली अपना राग अलापने में लगे हैं। ऐसे में महागठबंधन का हाल बेहतर स्थिती में नजर नही आ रहा है। वहीं वामपंथी दल भी अब एकला चलो की नीति अपनाकर महागठबंधन का खेल खराब कर सकते हैं। वामपंथी दलों ने एक- दो सीट के राजद के प्रस्ताव को नकार दिया है।

अब यह कयास लगाया जाने लगा है कि महागठबंधन में सम्मानजनक सीटें न मिलने पर वामपंथी दल यहां 'तीसरे मोर्चे' की भूमिका में नजर आ सकते हैं। सूत्रों का कहना है कि राजद ने महागठबंधन की ओर से वामपंथी दलों को एकमात्र आरा लोकसभा सीट की पेशकश की है, जिसे वाम दलों ने खारिज कर दिया है। जानकार भी कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में बिहार में वाम दल भले ही अपनी जमीन तलाश रहे हैं, लेकिन यह भी हकीकत है कि बिहार में करीब सात-आठ सीटों पर उनका जनाधार बरकरार है और नतीजे पर वे असर डालते हैं। जानकारों का मानना है कि वामपंथी दल बिहार में लगभग एक दर्जन से अधिक सीटों पर महागठबंधन के समीकरण को बिगाड सकते हैं। 

वामपंथी दलों के बिना भाजपा को हराना मुश्किल है?

वैसे पिछले लोकसभा चुनाव में वाम दलों में एकता नहीं बनी थी। लेकिन इस चुनाव में वाम दल साथ हैं और ऐसे में उनकी ताकत में इजाफा को भी नकारा नहीं जा सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाकपा-माले ने जहां 23 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, वहीं माकपा छह और भाकपा ने दो सीटों पर अपने-अपने प्रत्याशी चुनाव में उतारे थे। बिहार की आरा, सीवान, बेगूसराय, पाटलीपुत्र, काराकाट, उजियारपुर, मधुबनी सीटों पर वाम दलों का प्रभाव माना जाता है। भाकपा के राज्य सचिव सत्यनारायण कहते हैं कि यह सभी जानते हैं कि वामपंथी दलों के बिना भाजपा को हराना मुश्किल है। ऐसे में सम्मानजनक समझौता होना चाहिए। जबकि भाकपा (माले) के राज्य सचिव कुणाल कहते हैं कि कोई भी वामपंथी दल महागठबंधन का हिस्सा नहीं है। लोकसभा चुनाव में सीटों को लेकर करार नहीं हुआ, तो वाम दल एकजुटता के साथ चुनाव लडेंगे, जिसकी तैयारी भी है।

मौजूदा विधानसभा में केवल तीन वामपंथी विधायक (भाकपा- माले) हैं।

नब्बे के दशक के अंत तक बिहार में वामपंथ की दमदार मौजूदगी थी। सदन से लेकर सड़क तक लाल झंडा दिखता था। लेकिन अब वह दौर नहीं रहा। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि मौजूदा विधानसभा में केवल तीन वामपंथी विधायक (भाकपा- माले) हैं। इस प्रकार जनाधार लगातार खिसकने से वामपंथ की जमीन बंजर-सी हो गई है। वाम दल मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों के पिछलग्‍गू की भूमिका में सिमटते दिख रहे हैं। एक वह भी दौर था, जब बिहार विधानसभा में दो दर्जन से ज्यादा विधायक और लोकसभा में चार-पांच सांसद वामपंथी दलों से हुआ करते थे। इससे पहले 1972 के विधानसभा में कारतीय कम्‍युनिष्‍ट पार्टी (भाकपा) मुख्य विपक्षी दल बनी थी और सुनील मुखर्जी प्रतिपक्ष के नेता थे। मार्क्‍सवादी कम्‍युनिष्‍ट पार्टी (माकपा) और भाकपा- माले के भी कई विधायक हुआ करते थे। 1991 में भाकपा के आठ सांसद थे। तब चतुरानन मिश्र केंद्रीय कृषि मंत्री थे।

1969 के मध्यावधि चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। दो विपरीत राजनीतिक धुरी वाले दल जनसंघ और भाकपा के पास विधायकों की संख्या इतनी थी कि वे किसी की सरकार बना सकते थे। तब भाकपा ने मध्यमार्ग अपनाया और उसके समर्थन से दारोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी। यह घटना वामपंथी राजनीति के लिए एक नया मोड था। इसके बाद तो भाकपा ने कांग्रेस से राजनीतिक रिश्ता बना लिया। उस पर कांग्रेस का पिछलग्गू होने का आरोप भी लगा। वामपंथी दलों ने भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ अथक संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी। 

बिहार में वाम दल संसदीय राजनीति की सीमाओं में सिमटते गए

उसपर मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों एवं नेताओं ने फसल बोई कालक्रम में वाम दल मंडलवादी राजनीति से उभरे दलों के पिछलग्गू बनते चले गए। वाम दल संसदीय राजनीति की सीमाओं में सिमटते गए। नक्सल आंदोलन से भी वाम दलों का जनाधार कम किया। फिर 80-90 के दशक में मध्य और दक्षिण बिहार में वामपंथी राजनीति नक्सलवाद के रूप में एक नयी करवट ली। शुरूआती दौर में पार्टी यूनिटी, एमसीसी, भाकपा- माले (लिबरेशन) जैसे कई नक्सली संगठन चुनाव बहिष्कार और गैर संसदीय संघर्ष के नारे के साथ अलग-अलग इलाकों में सक्रिय थे। उनके साथ गरीबों, पिछ्डों व दलितों का बड़ा तबका साथ था। मंडलवादी राजनीति ने जिन सामाजिक आधारों को जातिगत आधार पर लालू प्रसाद के पक्ष में गोलबंद किया, लगभग वही तबका वामपंथी दलों का जनाधार था।

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