मुस्लिम लड़कियों की घर और स्कूली शिक्षा में कितना फर्क है? 

By IANS | Published: January 11, 2018 08:02 PM2018-01-11T20:02:33+5:302018-01-11T20:06:52+5:30

'एजुकेशन, पॉवर्टी एंड जेंडर : स्कूलिंग मुस्लिम गर्ल्स इन इंडिया' किताब की विवेचना।

Book Review: difference between Muslim girl's home and school education? | मुस्लिम लड़कियों की घर और स्कूली शिक्षा में कितना फर्क है? 

मुस्लिम लड़कियों की घर और स्कूली शिक्षा में कितना फर्क है? 

करीब एक दशक पहले लतिका गुप्ता ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन आरंभ किया था तो वह यह जानने को लेकर उत्सुक थीं कि लड़कियों के जीवन पर धर्म और लैंगिक पहचान का परस्पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस लगभग अनजान से पहलू की तलाश में वह जिस यात्रा पर निकलीं, उसका समापन एक एक पुस्तक के रूप में हुआ, जो हाल ही में प्रकाशित हुई है। 

अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक 'एजुकेशन, पॉवर्टी एंड जेंडर : स्कूलिंग मुस्लिम गर्ल्स इन इंडिया' (शिक्षा, निर्धनता, लिंग : भारत में मुस्लिम बालिकाओं की स्कूली शिक्षा) में बच्चियों की शिक्षा पर धर्म और संस्कृति के प्रभावों को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है और इसके लिए 'घर' और 'विद्यालय' के बीच के पारस्परिक प्रभावों की पड़ताल की गई है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान में सहायक प्रोफेसर लतिका गुप्ता उस समय जिस पाठ्यक्रम में अध्यापन कर रही थीं, उसमें लड़कियों को अपने समाजीकरण पर विचार प्रस्तुत करने के मौके दिए जाते थे। उन्होंने पाया कि उनकी एक-दो छात्राओं को छोड़कर बाकी सब एक बात में समान थी कि वे सांस्कृतिक कसौटियों के पालन पर दृढ़ हैं लेकिन व्यक्तिगत विकास के प्रति उदासीन नजर आती हैं। 

गुप्ता ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "मैं अक्सर हैरान रहती थी कि मेरी छात्राएं अपने घरों में धार्मिक कार्यक्रमों या घरेलू कामकाज में शामिल होने की वजहों से कक्षाएं छूटने से क्यों नहीं शर्मिदा महसूस करती हैं। ऐसी कौन-सी बात है जिनको लेकर उनमें अपने आपको विकसित करने की समझ पैदा नहीं हो पा रही है और वे पढ़ाई में अपनी ज्यादा-से ज्यादा ऊर्जा नहीं लगा पा रही हैं? यह मेरा व्यक्तिगत एजेंडा बन गया कि उन ताकतों का पता लगाऊं जो लड़कियों की जिंदगी और उनकी अपनी पहचान को आकार देतीं हैं।"

उनकी किताब में एक समुदाय की धार्मिक व सांस्कृतिक रूपरेखा और विद्यालय जीवन के पारस्परिक संबंध को तलाशने का प्रयास किया गया है। यह अध्ययन निम्न सामाजिक-आर्थिक हालात में में पल रहीं मुस्लिम बालिकाओं के शैक्षणिक अनुभव की जटिलता को समझने का साधन भी है। यह उस परिवेश में बारे में भी बताता है, जहां धर्म और लिंग के एक साथ मिलने से विशिष्ट सामाजिक व आर्थिक संदर्भ में एक सामाजिक ताकत का निर्माण होता है।

गुप्ता ने अल्पसंख्यकों के एक विद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों की पहचान का अध्ययन किया। इस विद्यालय का संचालन संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत उल्लिखित प्रावधानों के तहत होता है, जिनमेंधार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान चलाने की इजाजत दी गई है।

उन्होंने स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों से उनके जीवन व उनकी आकांक्षाओं और उनकी पहचान के विभिन्न आयामों के बारे लिखवाकर उनके जीवन के अनुभवों का संकलन किया। इस प्रकार करीब एक साल तक लगातार उनके अनुभवों और उनके माता-पिता से बातचीत का उन्होंने संकलन करके उन सारे तथ्यों का गहन अध्ययन व विश्लेषण किया।

गुप्ता ने पाया कि विद्यालय की ओर से अपनी छात्राओं में वैसी क्षमता व योग्यता नहीं पैदा की जाती है जिससे वे अपने जीवन में आर्थिक व बौद्धिक संभावनाओं का उपयोग अपने के लिए कर पाएं। घर की जिंदगी और बाहर के जीवन में इनकी लैंगिक पहचान को लेकर किसी तरह का दखल स्कूल का नहीं होता।

गुप्ता की किताब दरियागंज के एक स्कूल में किए गए अध्ययन पर आधारित है। हालांकि निजता को बनाए रखने के मकसद से पूरी किताब में स्कूल का जिक्र महज मुस्लिम गर्ल्स स्कूल (एसएसजी) के रूप में हुआ है।

अध्ययन में मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के लिए स्कूल और घर के बीच के मूल्यों और व्यवहारों में एक निरंतरता पाई गई। दरियागंज की मुस्लिम लड़कियों के लिए कोई वैकल्पिक आचरण का रूप उपलब्ध नहीं है। लड़कियां जो घर में सीखती हैं, वही स्कूल में सीखती हैं। टीचर और मां, दोनों से उन्हें समान शिक्षा मिलती है जबकि टीचर शिक्षित होती हैं और उन्हें पेशागत तालीम भी मिली होती है। 

गुप्ता ने कहा कि एमजीएस की लड़कियों के जीवन में स्कूल की भूमिका लैंगिक सामाजीकरण के सुव्यवस्थित लक्षणों और महिला जीवन के पूर्व निर्धारित व स्पष्ट मकसदों के मध्य आती है। दोनों तरफ के दबाव के कारण लड़कियों को ज्ञान के विविध क्षेत्रों की जानकारी हासिल करने व उनमें शामिल होने की इजाजत देने के लिए स्कूल के पास बहुत कम संभावना बच जाती है। साथ ही अध्ययन में पाया गया कि अधिकांश मुस्लिम छात्राएं हिंदुओं के बारे में अच्छा और सहिष्णु नजरिया रखती हैं।

गुप्ता ने कहा कि अध्ययन में उन्होंने पाया कि लड़कियों का यह मानना है कि पत्नी के लिए जरूरी है कि वह सास-ससुर, पति व बच्चों की सेवा करे। वे पति से अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए सहज आर्थिक योगदान की अपेक्षा रखती हैं। किसी भी लड़की को यह नहीं लगता कि एक महिला के लिए अच्छी पत्नी होने के लिए परिवार को अपने दम पर आर्थिक सहयोग देना आवश्यक है।

Web Title: Book Review: difference between Muslim girl's home and school education?

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