जीवनसाथी चुनने का अधिकार जीवन जीने और निजी आजादी के अधिकार में अंतर्निहित : अदालत
By भाषा | Published: November 24, 2020 05:59 PM2020-11-24T17:59:38+5:302020-11-24T17:59:38+5:30
प्रयागराज, 24 नवंबर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि बालिग होने पर एक व्यक्ति को जीवनसाथी चुनने का संवैधानिक रूप से अधिकार मिल जाता है और इस अधिकार से उसे वंचित करने पर ना केवल उसका मानवाधिकार प्रभावित होगा, बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिला जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रभावित होगा।
एक दंपति द्वारा उनकी शादी के खिलाफ दर्ज एफआईआर को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने यह टिप्पणी की।
अदालत ने कहा कि जीवनसाथी, भले ही उसका कोई भी धर्म हो, चुनने का अधिकार जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता के अधिकार में अंतर्निहित है। अदालत ने महिला के पिता द्वारा उसके पति के खिलाफ दायर एफआईआर रद्द कर दी। महिला ने धर्म परिवर्तन के बाद उस व्यक्ति से शादी की थी।
न्यायमूर्ति पंकज नकवी और न्यायमूर्ति विवेक अग्रवाल ने कुशीनगर के सलामत अंसारी और प्रियंका खरवार उर्फ आलिया द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए यह आदेश पारित किया।
याचिकाकर्ताओं ने कुशीनगर के विष्णुपुरा पुलिस थाने में 25 अगस्त, 2019 को आईपीसी की धारा 363, 366, 352, 506 और पॉक्सो कानून की धारा 7/8 के तहत दर्ज की गई एफआईआर रद्द करने की मांग की थी।
याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि दंपति बालिग हैं और वे अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने में सक्षम हैं। हालांकि महिला के पिता के वकील ने इस आधार पर याचिका का विरोध किया कि महज शादी के लिए धर्म परिवर्तन प्रतिबंधित है और इस तरह की शादी की कानून में कोई शुचिता नहीं है।
पीठ ने कहा, ‘‘हम प्रियंका खरवार और सलामत को हिंदू और मुस्लिम के तौर पर नहीं देखते, बल्कि दो बालिग व्यक्तियों के तौर पर देखते हैं जो अपनी इच्छा से पिछले सालभर से शांतिपूर्वक और खुशी खुशी साथ रह रहे हैं।’’
अदालत ने सितंबर, 2020 में प्रियांशी उर्फ समरीन और 2014 में नूरजहां बेगम के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर कहा, “हम नूर जहां और प्रियांशी के मामले में दिए गए फैसलों को अच्छा नहीं मानते। इनमें से किसी भी मामले में अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने में दो बालिग व्यक्तियों की आजादी के मुद्दे को ध्यान में नहीं रखा गया।”
उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सितंबर, 2020 में एक मामले में कहा था कि महज शादी के लिए धर्म परिवर्तन वैध नहीं है। अदालत ने यह टिप्पणी उस याचिका को खारिज करते हुए की जिसमें एक नवविवाहित जोड़े ने अदालत से पुलिस और लड़की के पिता को उनकी वैवाहिक जिंदगी में खलल नहीं डालने का निर्देश देने की गुहार लगाई थी।
इस याचिका को खारिज करते हुए अदालत ने कहा था, “अदालत ने दस्तावेज देखने के बाद पाया कि लड़की ने 29 जून, 2020 को अपना धर्म परिवर्तन किया और एक महीने बाद 31 जुलाई, 2020 को उसने शादी की जिससे स्पष्ट पता चलता है कि यह धर्म परिवर्तन केवल शादी के लिए किया गया।”
अदालत ने नूर जहां बेगम के मामले का संदर्भ ग्रहण किया था जिसमें 2014 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था कि महज शादी के उद्देश्य से धर्म परिवर्तन अस्वीकार्य है।
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