#KuchhPositiveKarteHain:मिलिए कोलकाता के इस टैक्सी ड्राइवर से जो हमारे समाज के लिए एक मिसाल हैं

By सुवासित दत्त | Published: August 14, 2018 04:58 PM2018-08-14T16:58:35+5:302018-08-14T16:58:35+5:30

एक तरफ देश में हिंदू-मुस्मिल, राइट-लेफ्ट की लड़ाई चल रही है। वहीं, ग़ाजी जलालुद्दीन जैसे लोग इस समाज के लिए एक वरदान बनकर उभरे हैं।

Story of Ghazi Jalaluddin story of an extra ordinary taxi driver from Kolkata | #KuchhPositiveKarteHain:मिलिए कोलकाता के इस टैक्सी ड्राइवर से जो हमारे समाज के लिए एक मिसाल हैं

#KuchhPositiveKarteHain:मिलिए कोलकाता के इस टैक्सी ड्राइवर से जो हमारे समाज के लिए एक मिसाल हैं

देश अपना 72वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है। और आज भी इस देश की राजनीतिक लड़ाई हिंदू-मुस्लिम के बीच भेदभाव कर लड़ी जा रही है। लेकिन, इसी समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इंसानियत की ऐसी मिसाल छोड़ जाते हैं जिसे जमाना सदियों तक याद रखता है। कुछ ऐसी ही एक शख्सियत के बार में मैं आज आपको बताने जा रहा हूं। पॉजिटिव स्टोरी की खोज में इस बार मैं कोलकाता के एक ऐसे इंसान के पास पहुंचा जो पेशे से तो महज़ एक टैक्सी ड्राइवर हैं लेकिन, इन्होंने काम ऐसे ऐसे किए हैं जिसके बारे में जानकार आप इस सोच में डूब जाएंगे कि लाख कमियों के बावजूद एक इंसान अपने समाज के लिए इतने काम कैसे कर सकता है ?

ये कहानी है कोलकाता के ग़ाजी जलालुद्दीन की जिनकी उम्र अब 70 साल हो चली है। इनकी कहानी शुरू हुई थी सुंदरबन के पास एक छोटे से गांव उत्तर-पूर्व ठाकुर चक से। जलालुद्दीन के पिता एक मज़दूर थे और घर में माता-पिता के अलावा चार भाई थे। एक मज़दूर बाप के लिए घर चलाना काफी कठिन काम था। जलालुद्दीन बचपन में एक बेहद ही प्रतिभावान छात्र थे। क्लास टू तक इनकी पढ़ाई ठीक-ठाक चल रही थी। लेकिन, आर्थिक मज़बूरियों के कारण जलालुद्दीन को क्लास टू के बाद की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। घर की गरीबी को दूर करने के लिए जलालुद्दीन का पूरा परिवार कोलकाता आ गया। कोलकाता में परिवार का पालन-पोषण मज़दूरी और भीख मांगकर चलता था।

7 साल की उम्र में जलालुद्दीन ने भी भीख मांग कर अपना गुज़ारा करना शुरू कर दिया था। 12 - 13 साल की उम्र में जलालुद्दीन ने कोलकाता के इंटेली मार्केट के आसपास हाथ रिक्शा चलाना शुरू कर दिया था।

लेकिन, ग़ाजी जलालुद्दीन के मन में एक टीस हमेशा से थी कि उन्हें गरीबी की वजह से पढ़ाई छोड़नी पड़ी। जलालुद्दीन कुछ पैसे कमा कर अपने जैसे गरीब बच्चों के लिए कुछ करना चाहते थे ताकि उनके साथ वो ना हो जो जलालुद्दीन के साथ हुआ था।

सुंदरवन ड्राइविंग समिति की स्थापना

बड़े होने पर गाज़ी जलालुद्दीन ने टैक्सी चलाना शुरू किया। टैक्सी से होने वाली कमाई से उन्होंने अपने गांव में ड्राइविंग समिति की स्थापना की। इस समिति के अंतर्गत जलालुद्दीन ने 10 गरीब युवकों को टैक्सी ड्राइव करना सीखाया। उन 10 युवकों से जलालुद्दीन ने ये वादा लिया कि हर व्यक्ति 2 गरीब लोगों को फ्री में ड्राइविंग सीखाएगा और हर महीने 5 रुपये समिति को जमा कराएगा। गाज़ी जलालुद्दीन की ये मेहनत रंग लाई। गाज़ी के मुताबिक अब पूरे कोलकाता में इस चेन के ज़रिए कुल 400 ऐसे गरीब युवा हैं जो ड्राइविंग सीखकर अपना पालन-पोषण कर रहे हैं।

पहले स्कूल की स्थापना - साल 1997

ग़ाजी जलालुद्दीन बताते हैं कि साल 1980 से 1995 तक ऐसा ही चला। वो लगातार स्कूल खोलने के लिए लोगों से मिल रहे थे लेकिन, कहीं से मदद नहीं मिल रही थी। आखिर में थक-हारकर ग़ाजी जलालुद्दीन ने अपने पिताजी से मिली अपने हिस्से की जमीन पर स्कूल खोलने का फैसला किया। उन्होंने अपने गांव और दोस्तों से मदद मांगी। लेकिन, ज्यादातर लोगों ने उनका साथ नहीं दिया। कई बार तो अपने गांव के लोग ही उनका मज़ाक उड़ा देते थे। लेकिन, ग़ाजी जलालुद्दीन  ने हिम्मत नहीं हारी।

ग़ाजी जलालुद्दीन ने लोगों से चंदा मांगना शुरू किया। खुद की टैक्सी में बैठने वाले पैसेंजर्स को भी अपने मिशन के बारे में बताया और मदद मांगी। कई लोगों ने उनकी मदद भी की। अंत में जब कुछ पैसे इकट्ठे हुए तो उन्होंने अपनी जमीन पर दो कमरे बनवाए। एक कमरे में ग़ाजी जलालुद्दीन  और उनकी पत्नी रहते थे और दूसरे कमरे में बच्चों को पढ़ाने के लिए क्लास रूम बनवाया गया था। जनवरी 1998 में ग़ाजी जलालुद्दीन  के पहले स्कूल का उद्घाटन किया गया। यहां से ग़ाजी जलालुद्दीन  के सपनें साकार होने शुरू हो चुके थे।

दूसरे स्कूल की स्थापना - साल 2006

बातचीत के दौरान ग़ाजी जलालुद्दीन बताते हैं कि उनका घर एक मुस्लिम बहुल इलाके में था। जहां हर धर्म जाति के बच्चों को स्कूल आने में परेशानी होती थी। इसलिए उन्होंने एक बड़ा स्कूल खोलने का सोचा जो मेन रोड पर हो और वहां आने में किसी को कोई परेशानी ना हो। ग़ाजी जलालुद्दीन को बड़ा स्कूल खोलने के लिए जमीन की ज़रूरत थी।

एक बार फिर ग़ाजी कई लोगों से इसके लिए मिले और चंदा मांगा। लेकिन, बात नहीं बन रही थी। एक रोज ग़ाजी जलालुद्दीन की मुलाकात बीबीसी, लंदन के पत्रकार दिपांकर घोष से हुई। दिपांकर ग़ाजी जलालुद्दीन की टैक्सी में बैठे तो उन्होंने अपने मिशन के बारे में दिपांकर को बताया। दिपांकर ये सुनकर काफी प्रभावित हुए और हर संभव मदद का वादा किया। दिपांकर घोष और पेशे से व्यवसायी अजित कुमार साहा की मदद से ग़ाजी जलालुद्दीन ने 2 बीघा 7 कट्ठा जमीन खरीदी जहां दूसरे स्कूल की स्थापना की गई। 

अनाथालय की स्थापना - साल 2011

ग़ाजी जलालुद्दीन यहीं नहीं रुके। उन्होंने चंदा इकट्ठा कर साल 2011 में एक अनाथालय की नींव रखी। शुरुआती दिनों में यहां 15 अनाथ बच्चों को रखा जाता था। यहीं पर उनकी पढ़ाई-लिखाई की भी व्यवस्था की गई थी। लेकिन, मूलभूत सुविधाओं और आर्थिक कमी की वजह से 6 महीने बाद ही इस अनाथालय को बंद करना पड़ा। हालांकि, ग़ाजी जलालुद्दीन ने सभी अनाथ बच्चों को उनके परिवार और रिश्तेदारों के हवाले कर दिया। साथ ही उनके आगे की पढ़ाई के लिए भी हर तरह की मदद जारी रखी।

नहीं मिली कोई सरकारी मदद

ग़ाजी जलालुद्दीन के मुताबिक अभी तक उन्हें किसी तरह की कोई भी सरकारी मदद नहीं मिली है। सारा खर्च 'Crowd Funding' से निकाला जाता है। ग़ाजी जलालुद्दीन की पत्नी भी उनका पूरा साथ देती हैं और चंदे के लिए लोगों से मिलती रहती हैं। ग़ाजी जलालुद्दीन बताते हैं कि हर महीने करीब 2 लाख रुपये का खर्च है। जिसके लिए उन्हें पूरे महीने अलग अलग लोगों से मिलना पड़ता है। कोई आर्थिक मदद करता है तो कोई सामना दान देकर मदद करता है। लेकिन, जैसे तैसे ग़ाजी जलालुद्दीन स्कूल का खर्च निकाल लेते हैं। 

मिसाल हैं ग़ाजी जलालुद्दीन

एक तरफ देश में हिंदू-मुस्मिल, राइट-लेफ्ट की लड़ाई चल रही है। वहीं, ग़ाजी जलालुद्दीन जैसे लोग इस समाज के लिए एक वरदान बनकर उभरे हैं। ग़ाजी जलालुद्दीन गरीब, अनाथ बच्चों के लिए एक ऐसा रहनुमा बनकर आए हैं जिसने अपनी पूरी जिंदगी समाज की सेवा के लिए लगा दी। ग़ाजी जलालुद्दीन जैसे लोगों की देश को सख्त ज़रूरत है। ग़ाजी जलालुद्दीन के इस मुहिम को हमारा भी सलाम !

Web Title: Story of Ghazi Jalaluddin story of an extra ordinary taxi driver from Kolkata

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