श्री अरविंद: क्रांतिकारी जिसने योगी बनकर जगाई अध्यात्म की अलख
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 15, 2018 07:39 AM2018-08-15T07:39:57+5:302018-08-15T07:39:57+5:30
श्री अरविंद के पिता चाहते थे कि वो ब्रिटिश सरकार के भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईसीएस) में उत्तीर्ण होकर अफसर बने। आईसीएस की लिखित परीक्षा में अरविंद ने 11वां स्थान हासिल किया था।
श्री अरविंद (अरविंद घोष) का जन्म 15 अगस्त 1872 में अविभाजित भारत में हुआ था। अरविंद क्रांतिकारी, दार्शनिक, योगी, कवि और राष्ट्रवादी विचारक थे। नोबेल विजेता भारतीय साहित्यकार रविंद्रनाथ टैगोर ने महर्षि अरविंद को भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मसीहा कहा था। आइए आज हम आपको इस महान भारतीय के बारे में
महर्षि अरविंद के पिता कृष्णा धन घोष की हार्दिक इच्छा थी कि उनका बेटा ब्रिटिश सरकार की भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईसीएस) में उत्तीर्ण होकर अफ़सर बने। अंग्रेजी राज में अफ़सर बनने के लिए जरूरी था अंग्रेजी भाषा और आचरण में पारंगत होना। ब्रिटिश समाज की भाषा और व्यवहार सीखने के लिए ब्रिटेन से अच्छी जगह क्या हो सकती थी। इसीलिए अरविंद जब सात साल के थे तभी उन्हें इंग्लैंड भेज दिया गया। अगले 14 सालों तक वो ब्रिटेन में रहे।
पिता की इच्छा के अनुरूप अरविंद ने 1890 में आईसीएस की परीक्षा दी। आईसीएस की लिखित परीक्षा में कुल 250 अभ्यर्थियों में अरविंद का 11वां स्थान था। उस समय आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को दो साल तक कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अध्ययन करना पड़ता था। अरविंद ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के किंग्स कॉलेज में दो साल तक पढ़ाई की लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में विफल रहने के कारण आईसीएस नहीं बन सके। कहते हैं कि अरविंद जानबूझकर घुड़सवारी में फेल हो गये ताकि उन्हें ब्रिटिश शासकों की सेवा न करनी पड़े।
विदेशी भाषाओं के ज्ञाता
अरविंद का अंग्रेजी के अलावा ग्रीक और लैटिन भाषाओं पर भी पूरा अधिकार था। इन दोनों क्लासिक भाषाओ की परीक्षा उन्होंने विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की थी। अरविंद को फ्रेंच, इतालवी और जर्मन का भी ज्ञान था। भारत आने के बाद उन्होंने संस्कृति और बांग्ला भाषा का अध्ययन किया। उच्च शिक्षा प्राप्त करके 1893 में अरविंद अपने देश वापस लौटे।
1901 में 28 वर्षीय अरविंद का 14 वर्षीय मृणालिनी से विवाह हुआ। मृणालिनी का 1918 में बीमारी के कारण निधन हो गया। भारत वापस लौटकर अरविंद ने बड़ौदा राज्य के अफसर के रूप में 1906 तक नौकरी की। अरविंद ने बड़ौदा कॉलेज में टीचर के रूप में भी सेवा दी।
नौकरी के साथ ही साथ वो कांग्रेस की राजनीति में भी शिरकत करने लगे। अरविंद पर सबसे ज्यादा प्रभाव लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का था।
अरविंद ने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (1902), मुंबई अधिवेशन (1904), बनारस अधिवेशन (1905), कोलकाता (तब कलकत्ता) अधिवेशन (1906) और सूरत अधिवेशन (1907) में हिस्सा लिया। कोलकाता अधिवेशन में स्वराज का प्रस्ताव पारित कराने में अरविंद की अहम भूमिका रही।
जेल यात्रा
1902 में कोलकाता में अनुशीलन समिति नामक युवाओं के संगठन की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभायी। बाघा जतिन (जतिन मुखर्जी) और सुरेंद्र नाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारी उनके सहयोगी थे। 1905 में ब्रिटिश शासन द्वारा किये गये बंगाल विभाजन के बाद अरविंद के मन में ब्रिटिश हुकूमत के लिए गहरा आक्रोश पैदा हो गया।
लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन का विरोध करने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद चाकी ने मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास किया। किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को सख्त सजा देने के लिए कुख्यात था।
बोस और चाकी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंका लेकिन निशाना चूक जाने के कारण दो अंग्रेज महिलाओं की धमाके में मौत हो गयी। अरविंद को भी इस हत्या की योजना बनाने और उसे अंजाम देने में मदद करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। अरविंद को अलीपुर जेल में तन्हाई में रखा गया।
अलीपुर बम काण्ड की सुनवाई करीब एक साल तक चली और मई 1909 में अरविंद सभी आरोपों से बरी हो गये। अलीपुर बम काण्ड मामले में अरविंद की तरफ से अदालत में देशबन्धु चितरंजन दास वकील के रूप में पेश हुए थे।
अध्यात्म की राह पर
1910 में जेल से छूटने के बाद अरविंद ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और आध्यात्मिक मार्ग पर निकल पड़े। अरविंद के अनुसार अलीपुर जेल में उन्हें स्वामी विवेकानंद के आने का आभास हुआ था। अरविंद को लगा कि एक पखवाड़े तक एकांत में वो हर दम विवेकानंद की आवाज सुनते रहे थे।
1910 में कर्मयोगी में छपे एक लेख "'टू माई कंट्रीमेन" (मेरे देशवासियों के लिए) की वजह से ब्रिटिश सरकार ने अरविंद की गिरफ्तार का वारंट जारी किया था। अरविंद गिरफ्तारी से बचने के लिए पुद्दुचेरी चले गये। पुद्दुचेरी उस समय फ्रांस के अधिकार में था, जहाँ ब्रिटिश हुकूमत नहीं चलती थी। अरविंद अगले 40 साल तक पुद्दुचेरी में ही रहे।
यौगिक साधना और ध्यान के साथ ही अरविंद ने आध्यात्मिक विषयों पर कई लेख और पुस्तकें लिखीं। द लाइफ डिवाइन, द सिंथेसिस ऑफ योग, एसेज ऑन गीता द सीक्रेट ऑफ द वेद, हिम्स टू द मिस्टिक फायर, द उपनिषद्, द रेनेसां इन इण्डिया, वार एण्ड सेल्फ-डिटरमिनेशन, द ह्यूमन साइकिल, द आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी और द फ्यूचर पोएट्री उनकी प्रमुख किताबें हैं। उन्होंने अपने वन्देमातरम्, कर्मयोगी, धर्म और आर्य जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया।
1926 में अरविंद आश्रम की स्थापना की। 1926 में उन्होंने अपना नाम बदलकर श्री अरविंद कर लिया। उन्हें 1943 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए और 1950 में शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया। हालाँकि दोनों ही बार उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिला।