कांग्रेस में शामिल होना चाहता था RSS, तीन मुर्ति भवन में हुई थी 20 मिनट तक बातचीत
By खबरीलाल जनार्दन | Published: June 17, 2018 05:43 PM2018-06-17T17:43:53+5:302018-06-18T07:24:52+5:30
ऐसे में सवाल उठता है कि जब आरएसएस खुद अपनी तरफ से कांग्रेस की ओर हाथ बढ़ा रहा था। कांग्रेस भी उन्हें शामिल करने के पक्ष में थी। फिर दोनों का मिलाप क्यों नहीं हुआ?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) इस वक्त भारत का सबसे बड़ा संगठन है। लेकिन एक वक्त था जब आरएसएस कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहता था। आरएसएस के गुरुजी यानी एमएस गोलवलकर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का राजगुरु बनना चाहते थे। इतना ही नहीं संघ अपने कई माध्यमों से जवाहरलाल नेहरू की तारीफ किया करता था। ताकि कांग्रेस और आरएसएस में रिश्ते सुधर सकें। दोनों संगठनों के रिश्तों को लेकर जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा कुछ दस्तावेजों के हवाले से खुलासा किया है।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक हालिया मामले में जिसमें प्रणब मुखर्जी को आरएसएस मुख्यालय नागपुर में बुलाकर कांग्रेस से रिश्ते सुधारने की पहल हुई थी, उससे बहुत पहले ही आरएसएस, कांग्रेस के साथ रिश्ते सुधारने के लिए बड़ा कदम उठा चुकी है।
रामचंद्र गुहा के एक आलेख के अनुसार 6 सितंबर, 1949 को प्रकाशित हुए संघ के मुखपत्र ऑगनाईजर की कवर स्टोरी की हेडिंग थी- नियति के दो व्यक्तियों की मुलाकातः भारत के भविष्य के लिए एक सुखद आभाष। इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन आरएसएस सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर की 30 अगस्त, 1949 को तीन मूर्ति भवन में हुई करीब 20 मिनट की मुलाकात का जिक्र था।
मिथ्या बोध के बादलों ने संघ और कांग्रेस के बीच 'खाई' पैदा कर दी है, लेकिन उम्मीद है अब यह भर जाएगी। किसी भी पार्टी के पूर्वाग्रहों या अतीत को राष्ट्र की पूरी ऊर्जा के उपयोग के बीच में नहीं लाना चाहिए। संत और राजनेता, सांस्कृतिक शक्ति और राजनीतिक शक्ति के बीच यह मुलाकात देशभक्ति से जुड़ी ताकतों में एकता का मार्ग प्रशस्त करेंगी। देश को आज इसकी बेहद जरूरत है।- कवर स्टोरी, संघ का मुखपत्र ऑगनाईजर, 6 सितंबर, 1949 अंक
इसके कुछ ही दिन बाद गोलवलकर और नेहरू में दोबारा मुलाकात हुई। दोनों में फिर से बात हुई। इसके बारे में फिर से ऑर्गनाइजर में लिखा गया। तब गोलवलकर के हवाले लिखा गया, हमारे बीच विचारों का स्वतंत्र आदान-प्रदान हुआ। हमने एक दूसरे के मन को भी समझने की कोशिश की। संघ और कांग्रस भारत के विकास पर काफी कुछ एक जैसे खयालात रखता है।
इन प्रक्रमों के बाद तब कांग्रेस में भी संघ को समाहित करने की चर्चाएं चलने लगी थीं। रामचंद्र गुहा के मुताबिक अक्तूबर 1949 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जहवाहरलाल नेहरू अमेरिका गए हुए थे, तब यहां कई कांग्रेसियों ने संघ सदस्यों को कांग्रेस में शामिल होने की इजाजत देने की बातें भी की थी। इस बात को ऑर्गनाइजर में प्रकाशित किया गया। तब ऑर्गनाइजर ने छापा- यह कांग्रेस की संघ के खिलाफ जंग का अंत है।
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ऊधर, जवाहरलाल नेहरू अमेरिका से लौट आए। उनका दौरा प्रधानमंत्री के तौर पर बेहद सफल रहा। वहां अमेरिका ने उन्हें कई मानद उपाधियां देकर वापस लौटाया। इस बात पर नेहरू की तारीफ करते हुए ऑर्गनाइजर ने 16 नवंबर, 1949 को एक पेज का संपादकीय प्रकाशित किया।
नेहरू का अमेरिका में जिस तरह से सम्मान हुआ हम सब गौरवान्वित महसूस करते रहे हैं। आज नेहरू बड़े हैं, क्योंकि वह राज्य में स्थिरता लाने, अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें चाहिए कि वह उलटकर गांधी और विवेकानंद के विचारों को फिर से देखें, समझें।- संघ का मुखपत्र ऑगनाईजर, 16 नवंबर, 1949
ऐसे में सवाल उठता है कि जब आरएसएस खुद अपनी तरफ से कांग्रेस की ओर हाथ बढ़ा रहा था। कांग्रेस भी उन्हें शामिल करने के पक्ष में थी। फिर दोनों का मिलाप क्यों नहीं हुआ? इसका जवाब भी ऑगनाईजर ने 23 नवंबर, 1949 को छापा। ऑर्गनाइजर ने लिखा- आरएसएस के लिए कांग्रेस का दरवाजे बंद करने के पीछे इसके कुछ बेहद खास नेता और मुस्लिम समर्थक पूर्वाग्रह हैं। बताया जाता है कि महात्मा गांधी के राजनैतिक शीष्य कहे जाने वाले जवाहरल लाल नेहरू ने ही तमाम तारीफों के बाद भी संघ को कांग्रेस में शामिल नहीं किया।
लेकिन इसकी परिणति यह हुई कि वही गोलवलकर ने ठान लिया कि वे आरएसएस को एक बड़ा संगठन बनाएंगे। जब गोलवलकर ने 1940 में संघ का कार्यभार संभाला था तब इसकी कुल 50 शाखाएं और एक लाख स्वयंसेवक थे। जब 5 जून, 1973 को गोलवलकर का निधन हुआ तब संघ की 10,000 शाखाएं और 10,00,000 स्वयंसेवक थे।
कांग्रेस में शामिल होने की उनकी योजना में प्रमुख रूप से यह बताई जाती है कि वे राजनीति के अंदर रहकर देश में अपनी विचारधारा को फैलाना चाहते थे। लेकिन तब जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी ने ऐसा नहीं होने दिया।