यह 74 साल पहले आज ही का दिन था जब मानचित्रकारों की बेरहम स्याही ने आजादी के जश्न के बीच एक गांव में रह रहे कई लोगों के सपने चकनाचूर कर दिए थे। यह गांव अब बांग्लादेश में हैं। तृप्ति सरकार के लिए 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से मिली आजादी का जश्न तीन बाद तब फीका पड़ गया जब उन्हें रैडक्लिफ रेखा के बारे में पता चला जो नए-नए आजाद हुए भारत और पाकिस्तान की सीमा रेखा को दर्शाती थी। हिंदू बहुसंख्यक आबादी वाले इलाके में उनका पांच सदी पुराना उल्पुर गांव पाकिस्तान में चला गया। सरकार (89) अब कोलकाता में रहती हैं और वह याद करती है कि आजादी के दिन फरीदपुर जिले में अपने गांव में वह कितनी खुश थीं। हर कोई तिरंगा लहरा रहा था, मिठाइयां बांट रहा था और देशभक्ति के गीत गा रहा था।दो दिन बाद 17 अगस्त की रात को यह सीमा रेखा सार्वजनिक की गयी और सरकार तथा उनके परिवार समेत ज्यादातर भारतीयों को 18 अगस्त को सुबह अखबारों से यह खबर मिली। उल्पुर से करीब 270 किलोमीटर दूर मुर्शिदाबाद जिले के बहरामपुर में 14 अगस्त को मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं ने पाकिस्तानी झंडे के साथ मार्च किया। उसी दिन लॉर्ड लुइस माउंटबेटन ने कराची में पाकिस्तान की नयी संसद में विदायी भाषण दिया। आजादी के तीन दिन बाद मुस्लिम लीग को यह अहसास हुआ कि सर सिरिल रैडक्लिफ ने इस तरीके से सीमा का बंटवारा किया कि मुस्लिम बहुसंख्यक जिले भारत के हिस्से में चले गए। रैडक्लिफ रेखा की घोषणा उन लोगों के लिए एक ‘‘स्वप्न भंग’’ थी जिन्हें लगता था कि केवल धार्मिक जनसांख्यिकी से ही यह तय होगा कि वे किस देश में रहेंगे।पूर्व भारतीय राजनयिक और ‘ द पीपुल नेक्स्ट डोर: क्यूरियस हिस्ट्री ऑफ इंडिया पाकिस्तान रिलेशन’ के लेखक टीसीए राघवन ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘बंगाल में पंजाब के विपरीत जहां पर बड़े पैमाने पर नस्ली सफाया हुआ और कुछ महीनों में भी आबादी का लगभग पूरी तरह से स्थानांतरण हो गया, खास जनसांख्यिकी,समन्वय और साझी संस्कृति की वजह से कम खून खराबा हुआ और शरणार्थियों का तबादला अचानक नहीं हुआ बल्कि खंड-खंड में लंबे समय में हुआ।’’ सरकार का परिवार नाव और रेलगाड़ी से बंटवारे के करीब छह महीने बाद कलकत्ता पहुंचा। मुर्शिदाबाद के दीवान खान बहादुर फजल रब्बी खानडोकर का परिवार बंट गया और एक धड़े ने मुर्शिदाबाद में ही रहने का फैसला किया जबकि एक हिस्सा ढाका तो दूसरा कराची जाकर बसा। हालांकि, रैडक्लिफ रेखा खींचने के बाद यात्रा कुछ दिनों में हो या कई महीनों बाद, अपनी जमीन से उखड़ने की त्रासदी बहुत अधिक थी। प्रख्यात इतिहासकार और पूर्व लोकसभा सांसद सौगत बोस ने मंगलवार को माउंटबेटन पर यह घोषणा न करने का आरोप लगाया कि सीमाएं कहां होंगी। लेकिन यह आरोप आधारहीन भी नहीं है क्योंकि लंदन के वकील सर सिरिल रैडक्लिफ भारत के बारे में बहुत कम जानते थे लेकिन उन्हें पूर्वी और पश्चिम भारत में सीमा रेखा खींचने का जिम्मा दिया गया। उन्होंने बंगाल विभाजन की रिपोर्ट नौ अगस्त को सौंपी थी जबकि पंजाब की सीमा निर्धारण की रिपोर्ट बाद में सौंपी थी। ब्रिटिश हितों की रक्षा का नतीजा रहा कि हजारों बेगुनाह लोगों को यह जानकारी ही नहीं थी कि उनका घर सीमा के किस ओर रखा जाएगा। रैडक्लिफ का फैसला कांग्रेस और मुस्लिम लीग के दावे और प्रतिदावों पर आधारित था। भारत के लिए कांग्रेस ने मुस्लिम बहुल राज्य होने के बावजूद अविभाजित बंगाल के 59 प्रतिशत हिस्से पर दावा किया जबकि रैडक्लिफ सीमा आयोग ने भारत को पश्चिम बंगाल के रूप में अविभाजित बंगाल की 36 प्रतिशत भूमि दी। बंगाल के अधिकतर जिलों के भाग्य का फैसला इस आधार पर हुआ कि वहां कि बहुमत आबदी किसी समुदाय की है और जिन इलाके में रह रहे हैं वे आबादी के अन्य क्षेत्रों के समीप हैं या नहीं। रैडक्लिफ को फैसला करना था कि किसके पास कलकत्ता जाएगा क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों उसपर दावा कर रहे थे। हालांकि , ताज के मणि कलकत्ता को पश्चिम बंगाल को दिया गया जिससे मुस्लिम लीग हताश थी। कलकत्ता हिंदू बहुल 24 परगना में था। वर्ष 1971 में मशहूर पत्रकार कुलदीप नयर को दिए साक्षात्कार में रैडक्लिफ ने खुलासा किया कि उन्होंने लाहौर को पाकिस्तान को दिया क्योंकि वह पहले ही कलकत्ता को भारत को देने की अनुशंसा कर चुके थे। हालांकि, सबसे अहम रहा कि फरक्का जो हुगली नदी का मुहाना है और जो मुर्शिदाबाद और नदिया जिले में भगीरथी नदी के नाम से बहती है, उसे भारत को उससे लगे जिलों के साथ दे दिया गया जबकि इस इलाके में हिंदुओं और मुस्लिमों की मिली जुली आबादी थी। ब्रिटिश कैबिनेट की भारत और बर्मा समिति के लिए लिखे गए ज्ञापन में स्पष्ट किया गया कि यह बदलाव इसलिए किया गया ताकि पश्चिम बंगाल का कलकत्ता नदी प्रणाली पर नियंत्रण रहे। कलकत्ता के नीचे गंगा की सहायक नदी मठभंगा को दोनों देशों की सीमा बनाया गया और हिंदू बहुल खुलना जिले का अधिकतर हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया गया। चाय उत्पादन जिले दार्जीलिंग और जलपाईगुड़ी भारत में आ गए जिससे कुछ और हिस्से भारत में आ गए जो पाकिस्तान को दिए जाने थे। हालांकि, रैडक्लिफ ने पूरे चिटगांव पहाड़ी क्षेत्र को पाकिस्तान को दे दिया जहां पर बौद्ध आदिवासियों का भारी बहुमत था। यह फैसला पाकिस्तान के चिटगांव बंदरगाह पर आर्थिक जीवन की निर्भरता के अनुरोध पर किया गया। यह फैसला अंतरिम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कड़े विरोध के बावजूद हुआ। राजनीतिक विश्लेषक और कलकत्ता अनुसंधान समूह के सदस्य रजत रॉय ने कहा, ‘‘जिस तरह और जिस तरीके से बंटवारा हुआ और इसकी घोषणा करने में देरी हुई, उससे सीमा के दोनों ओर पीड़ित होने की भावना बढ़ी।’’ उन्होंने बताया कि इसका तात्कालिक राजनीतिक प्रभाव रहा कि अबतक बंगाल में छोटी ताकत रही कम्युनिस्ट पार्टी का उदय हुआ और वह शरणार्थियों की हितैषी बनकर उभरी जिसकी वजह से 1951 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में उसे 28 सीटें मिलीं। उसका कद तेजी से बढ़ा और वह अभूतपूर्व तरीके से 1977 से अगले 34 साल तक सत्ता में रही। सीमा के उस पार भी बंटवारे के लिए प्रतिबद्ध मुस्लिम लीग तब स्तब्ध हुई जब मुहम्मद अली जिन्ना ने मार्च 1948 में ढाका विश्वविद्यालय में खड़े होकर उर्दू को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा घोषित किया न कि बंगाली को, जिसका छात्रों ने विरोध किया। बंगाली भाषा को आधिकारिक मान्यता दिलाने के लिए शुरू हुए आंदोलन ने चिंगारी की तरह काम किया और अवामी लीग का जन्म हुआ और अंतत: पूर्वी बंगाल को अधिक स्वायत्ता की मांग शुरू हुई और आजादी की लड़ाई में तब्दील हुई जिससे 1971 में बांग्लादेश का जन्म हुआ।
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